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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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आकास विषे ये सूरज तिष्ठे है । सो कहिये है मानो तुम्हारी ध्यानरूपी अग्निका कनका ही है । अथवा तुम्हारे नखकी ललाई आकाशरूपी आरसी विषं ये प्रतिबिंब ही । अरु हो भगवानजी तुम्हारे मस्तग ऊपरै तीन क्षत्र सोभे हैं। सो मानू छत्रका मिस कर तीन लोक ही सेवनेको आये हैं । अरु हो भगवानजी तुम्हारे ऊपर चौसट चमर दुरे हैं सो मानू चमरीका मिसकर इन्द्रके समूह गोप्य ही नमस्कार करें हैं । अहा भगवानजी जे तेरे सिंहासन कैसे सोभे हैं यह सिंहासन नाहीं मानू ये तीम लोकका समुदाय एक लोक होय तुम्हारे चरनकमल सेवनेको आये हैं । सो कैसे होत संते सेवे हैं । यह भगवान अनन्त चतुष्टयको प्राप्त भये हैं । सो सिद्ध अवस्था विषं मेरे ऊपर तिठेगे । अहो भगवान नी तेरे असोक वृक्ष ऊपर तिष्ठे है। सो त्रिलोकके जीवाने शोक रहित करे है । बहुरि हे भगवाननी आपके शरीरकी क्रांत जैसा जैसा शरीर होय तैसा तैसा ही भामंडल कियो दसों दिसाने उद्योत किया है । ता विर्षे सात तो देखने हारेका प्रतभासे है । बहुरि हे भगवाननी तुम्हारे आभ्यंतरके आत्मीक गुन तो अनंतानंत हैं। ताकी महमा तो कौनपै कही जाई है। परंत आपाके प्रतिसय कर शरीर भी ऐसा अतिशयरूप प्रणम्या है । ताका दर्शन किये विकार भाव विले जाय । काम उपसांत होय । मोह जड़ मूलो उड जाइ । ज्ञानावरनादि घातिया कर्म सिथिल होंय । पाप प्रकृति प्रलेतें प्राप्त होय । सम्यकदर्शन मोक्षका वीर्य उत्पन्न होय । इत्यादि सर्व आभ्यंतर बाह्य विप्र विलै जाइ । सो हे भगवान ऐसे शरीरकी महमा