________________
ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
परम उतकृष्ट परम पवित्र ऊंचा जान याको भजो । घनी कहा कहा कहिये कदाचित ऐसा मोसर पायकर ईहसों चूकता भया तो बहुरि ऐसा मोसर मिलनेका नाहीं । अवर और सामनी तो सर्व · पाइये है एक रुच करनी ही रही है । सो तू या पाया विना ऐसी सामग्री पाई हुई अहली जाय । तो याका दरेग सत्पुरुष कैसे न करें । अरु कैसे सम्यकज्ञान होनेके अर्थ उद्यम नाहीं करें परन्तु करे ही करें । यह जीव फेर एकेन्द्री पर्याय विर्षे जाय पड़े तो असंख्यात पुद्गल परवर्तन पर्यंत अनुत्कृष्ट रहै । एक पुद्गल परवर्तनकी संख्या अनन्त है । अनंते सागर अनन्ते सर्पनी वा काल चक्र अनन्तानन्त प्रमान एक पुद्गल पर्वर्तनके अनन्तमें भाग एक अंस भी पूर्न होय नाहीं । अरु एकेन्द्री पर्याय विषं दुःखका समुद्र अप्रमित है। नरकतें भी अधिक दुख पाइये है सो ऐसा अपरंपार दुःख ऐसे दीर्घकाल पर्यंत सास्वदा कैसे भोगे जांय । परंतु कर्मके वस पड्या जीव कहा उपाय टरे । उहा अनेक रोग विर्षे कोई काल विषे एक रोगकी वेदना उदै होय । ताके दुख कर जीव कैसो आकुल व्याकुल परनवे है । अपघान कर मुवा चाहे सोये सताई पर्याय वि सर्वमाही ही प्रवर्ते है । वा सर्व तिर्यंच पुन्यहीन पुरुष दुखःमई प्रत्यक्ष देखने में आवे हैं। तिनके एक एक दुःखका अनुभवन करऐ तो भोजन रुचे नाहीं । परन्तु यह जीव अज्ञान बुद्धिकर मोह मदरापान कर भूल रहा है । सो कहुं एकांत बैठ विचार ही करे नाहीं । जे जे पर्याय वर्तमान विष पावे तिन पर्याय सों तनमय होय एकत्व बुद्धि कर परनमें है पूर्वापर कुछ