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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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जानूं पूर्वै अनादि कालके जेते सिद्ध भये वा नित्य निगोद में सो निकसे विनतें अनन्त गुन एक समै विषें अनादि काल सो लगाय सास्वते नित्य निगोद में सूं निकसवो करें । तो भी एक निगोदके सरीर मांहि ता जीवका अनन्तवें भाग एक ऐसे में खाली होय नाहीं । तो कहो राजमारग बटवारा माफिक निगोद मांसू जीवका निकसना कैसे होय । अरु कोई भाग उठे वहां सो निकसता आगे भी अनेक घाटा उलंघ मनुष्य विषे भी ऊच कुल, सुक्षेत्र वास, निरोग शरीर, पांचों इंद्री वा निर्मल दीर्घ आयु, संगति जिनधर्मकी प्राप्ति इत्यादि परंपरनामों की महमा कहा कहिये । ऐसी सामग्री पाय सम्यकदर्शन रत्नको नाहीं वांक्षे है । तिन दुर्बुधीका कहा पूछनो । अरु वाके अपजसकी कहा पूछनों । तीसूं एकेन्द्री पर्यायसूं पंचेन्द्री पर्याय पावना महादुर्लभ है । वे इन्द्री पर्यायसूं इन्द्री पर्याय होना महादुर्लभ है । पर्यायसूं चौइन्द्री पर्याय पावना अति कठिन है। चौइन्द्री पर्यायसूं पंचेन्द्री असेनी पर्याय पावना अनि कठिन है । असेनी सेनी तामें भी गर्भज पर्याप्तन होना महादुर्लभ है । सो ये पर्याय अनुक्रमसों महादुर्लभ था सो भी अनन्त वार पाया । परन्तु सम्यकज्ञान अनादकाल लेय अन्तक एकवार भी नाहीं पाया। सो सम्यकज्ञान पाया होता तो विषें क्यों रहता मोक्षके सुखको भी जाय प्राप्त होता । तीनों भव्य जीव शीघ्र ही सम्यक ज्ञान परम चिन्तामनि रत्न महा अमोलक परम मंगल कारन मंगल रूप सुखकी आकृत पंच परम गुरुकर सेवनीक त्रिलोक के पूज्य मोक्ष सुखके पात्र ऐसा सर्वोत्कृष्ट सम्यकज्ञान महादुर्लभ,
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संसार