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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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अमृत विष रूप होय इत्यादि इन वस्तुका सुभाव विपर्जे हुआ न - होय न होसी परन्तु कदाच ए तो विपर्जे रूप होंय तो होंय । परन्तु
सराग भावने कारन जीवकी दया आदि
राग भाव में धर्म कदाचि न होय । यह जिनराजकी आज्ञा है । तातें सर्व जीवा सराग भावने छोड़ वीतराग भावने भजो । वीतराग भाव है सो ही धर्म है । और धर्म है सो ही दया है । दयामें अरु वीतराग भावमें भेद नाहीं । सराग भाव है सो ही अधर्म है । और धर्म मांडी यह नेम हैं। सराग भाव सो हिंसा जाननी । और जेता धर्मका अंग है सो वीतराग भावने अनुसारता है । वा वीतराग भावाने कारन है । ताही तें धर्म नाम पावे है । और जेता सराग भाव है सो पापका अंग है वा है। ते अधर्म नाम शबे हैं । और अन्य बाह्य कारन विषं धर्म होय व न होय । जेवा क्रिया विषें वीतराग भाव मिलें तो ता विषं धर्म होय । और वीतराग भाव नाहीं मिलें तो धर्म नाहीं । अरु हिंसा अस्त आदि बाह्य क्रिया विषं कषाय अंस मिले तो पाप उपजे नाहीं । तातें यह नेम ठहरया वीतराग भाव ही धर्म है । वीतराग भावने कारन रत्नत्रय धर्म है । रत्नत्रय धर्म और अनेक कारन हैं। तातें वीतराग भावांके मुलाझे । कारनका करन उत्तरोतर सर्व कारनको धर्म कहिये तो दोष नाहीं । ऐसे ही सराग भाव ही अधर्म है । याको कारन मिथ्या दर्शन ज्ञान चारित्र वाको उत्तरोतर ये कारन अनेक हैं । ताको अधर्म कहिये तो दोष नाहीं । सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान वीतराग भाव यह तो जीवका निज स्वभाव है । सो मोक्ष पर्यंत सास्वता तीच भावका विभाव है। सो ही संसार मार्ग है स्वभाव
रहे है । यासों उल्टा