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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
है प्रथम तो जीव संसारका स्वरूप थिर मान रमत्या है। ताको अध्रुव भावना कर संसारका स्वरूप अथिर दिखाया । शरीर सों उदास किया । बहुरि ये जीव माता पिता कुटुम्ब राजा देव इन्द्र आदि बहुत सुभटनकी मरन वांक्षता संता निरभै अमर सुखी हुवा चाहै है । काल करम सो डरप थकी सरन वांक्षे है। ताको असरन भावना कर सर्वत्र लोकके पदार्थ ताको असरन दिखाय सरन एक निश्चे चिद्रूप आत्मा ही दिखाया । बहुरि ये जीव जगत जो संसार वा चतुर गत ताके दुःखका याको खबर नाहीं । संसार विर्षे कैसा कैसा दुःखे है। ताको जगत भावना कर नरकादि संसारके भयंकर तीवृ दुःखकी वेदनाको सहे ई दिखाय संसार दुःख सों भयभीत किया । अरु संसारके दुःखकी निवृतः होनेका कारन परम धर्म ताका सेवन किया । बहुरि यह जीव कुटुम्ब सेवा कर पुत्र कलित्र धन धान्य शरीर आदि अपने माने है। ताको एकत्व भावना कर एक कोई जीवका नाहीं । जीव अनाद कालका एकला ही है । नरक गया तो एकला तिर्यंच गतिमें गया तो एकला, मनुप्य गतिमें गया तो एकला, देवगतिमें गया तो एकला। पुन्य पापकी सार्थ है । और कोई याके साथ जाय आवे नाहीं तातें जीव सदा एकला है। ऐसा जान कुटुम्ब परवारादिकका ममत्व छुड़ाया । बहुरि यह जीव शरीरने अरु आपने एक ही मान रहा है । ताको असत्य भावनाको वस करतें न्यारा दिखाया जीवका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा बताया। पुद्गलका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा बताया । इत्यादि अनेक तरहसो भिन्न भिन्न दिखाय निनः स्वरूपकी प्रतीत अनाई । बहुरि ये जीव शरीरको बहुत पवित्र