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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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• ज्ञानका स्वरूप जथार्थ जानना । इति सम्यकज्ञान संपूर्ण | आगे
सम्यक चारित्रका स्वरूप कहिये है । चारित्र नाम सावध जोगके त्यामका है । सो सम्यकज्ञान सहित त्याग किये सम्यक चारित्र नाम पावे है । सो सम्यकदृष्टिके सरघानमें वीतराग है । प्रवृत्तिमें किंचित गग भी है । ताको चारित्र मोह कारन अरु सरधानके भावाको दर्सन मोह कारन । सो सम्यकदृष्टिके अल्प कषाय नाहीं गनि वीतराग भाव ही कहिये । तातें सम्यकदृष्टिको बंध निबंध निराश्रव ही कहिये है तो दोष नाहीं विवस्था जान लेनी। या कथा एक जायगा सास्त्र विर्षे कही है । मिथ्यादृष्टिके. सरधानमें वीतराग भाव नाहीं । वीतराग भाव विना निबंध निश्रव नाहीं। निबंध निराश्रव विना सावध जोगका त्याग कारजकारी नाहीं । सुरगादिकने तो कारन है। परन्तु मोक्षने कारन नाहीं । तातें संसारका ही कारन कहिये । जे जे भाव संसारका कारन हैं ते ते आश्रव हैं। यह कार्यकारी है। अरु सम्यक् विना सावध जोगका त्याग करे है सो नरकादिकके भयका दुःख थकी करे है । परन्तु अंतरंग विषे कोई द्रव्य इष्ट लागे नाहीं । केई द्रव्य अनिष्ट लागे है । तति सरधान विषे रागद्वेष प्रचुर जीवे है । सम्यकदृष्टि पर द्रव्यने अप्तार जान तजे है । ये परद्रव्य कोई सुख दुखने कारन नाहीं निमित्त भूत हैं । दुखने कारन तो अपने अज्ञादिक भाव हैं। सुखने कारन अपने ज्ञानादिक भाव हैं । ऐसा जान सरधान विर्षे पर द्रव्यका त्यागी, हुवा है । तात याके पर द्रव्य सो राग नाहीं। जैसे फटकरी लोदकर कषायला किया वस्तर वाके