________________
ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
१२७
वेदी मोक्ष जाय । सो यह ऐसे भाव वेदके धारीकी अपेक्षा तो विधि मिले हैं। अरु द्रव्यांकी अपेक्षा विधि मिलती नांही। पुरुष स्त्री तो
आध आध देखनेमे आवे है । द्रव्यां नपुंसक ल खा पुरुष स्त्रीमें एक भी देखवेमें आवे नहीं । तातें भी तुम्हारे शास्त्रकी बात झूठी भई । बहुरि बाहुबल मुनिके वे ई ऐसे कहें हैं । वरस दिन ताई केवलज्ञान डोल्यो डोल्यो फिरवो करो परन्तु बाहुबलजीके परिणाम विर्षे ऐसा कषाय रहवो करया सो यह भूम भरतकी है। ता ऊपरे हम तिष्टे हैं। तो यह उचित नहीं। ऐसे मान कषाय कर केवल ज्ञान उपना नाहीं। इत्यादि वावला पुरुषकी नाई असंभव कहिये है। तो वे अन्न मतसे कहा घटि है। जिनधर्मकी बात ऐसी विपर्ने है नाहीं ऐसी बात तो लड़का भी कहानी मात्र कहै नाहीं । जा पुरुष कदें सिंह देष्या नाहीं ताके भावे विलाव भी सिंह है त्यों ही जा
पुरुष वीतरागी पुरुषाका मुख थकी साचा जिनधर्म कदें सुन्या . नाहीं ताके भावे मिथ्याधर्म ही सत्य है। तातै आचार्य कहे हैं
अहो लोको, धर्मने परीक्षा कर ग्रहण करो। संसार विषं पोटे धर्म बहुत हैं पोटा धर्मके कहनहारे लोभी आचार्य बहुत है साचा धर्मके कहनहारे वीतरागी पुरुष विरले हैं । सो यह न्याय है अच्छी वस्तु . जगत विषे दुर्लभ है । सो सर्वोत्कृष्ट शुद्ध जिन धर्म है सो दुर्लभ
होय ही होय । तातै परीक्षा किये विना पोटा धर्मका धारन होय . ताके सरधान कर अनन्त सागर विषे भ्रमन करना परे । यह
जीव संसार विषे रुले है ताके रुलनेका कारन एक ही है और , कोई कारन माने है सो भ्रम है। तातै धर्म अधर्मके निरधार कर
नेकी अवश्य बुद्धि चाहिये। पनी कहा कहिये । ऐसे श्वेताम्बर