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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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नाहीं। आलस मारे नाहीं। घूमे नाहीं । मंद सवद बोले नाहीं। शास्त्रसूं ऊंचा बैठे नाहीं। पांव पर पांव नाषे नाहीं । उकड़ बैठे नाहीं। गोड़ी दो वडिवारे नाहीं । घना दीर्घ शब्द उचारे नाहीं । अरु घना मंद सबद भी बोले नाहीं। भृमायल सवद भी बोले नाहीं । श्रोतानकी निज मतलबके अर्थ खुसामद करे नाहीं। जिनवानीके लखे अर्थको छिपावे नाहीं । जो एक अक्षरको छिपावे तो महापापी होई । अनन्त संसारी होय । जिनवानीके अनुस्वार विना अपने मतलब पोषनेके अर्थ अधिक हीन अर्थ प्रकासे नाहीं । जा शब्दको अर्थ आप सो उपजे नाहीं ता शब्दको अर्थ मान बड़ाई लियां अन्यथा नाहीं कहै । जिनदेव न भुलाय देय । मुखसो सभा विषे ऐसा कहे । या शब्दका अर्थ कछू हमारे ताई भास्या नाहीं। हमारी बुद्धिकी नूनता है । विशेष ज्ञानी मिलेगा वा को पूंछेगे । नाहीं मिलेगा तो जिनदेव देख्या सो प्रमान है । ऐमा अभिप्राय हो व हमारी बुद्धि तुक्ष है। ताके दोष कर तत्वका स्वरूप औरका और कहनेमें आवे वा साधनमें आवे । तो जिनदेव मोपर छिमा करो मेरा अभिप्राय तो ऐसा ही है। जिनदेवने ऐसा ही देष्या है तातें भी ऐसा ही धरो है । अरु ऐसे ही ओरांको आचरन कराऊं हूं। मेरे मान बड़ाई लाभ अहंकार प्रयोजन नाहीं । सूक्ष्म अर्थकू ओरसे ओर भासे तो मैं कहा करूं । ताही ते मो आदि दिगम्बर देवां प्रनंत ज्ञानकी नूनता पाई है । तातें असत्य वा उभै मनो जोग वा वचन जोग वारमां गुनस्थान प्रयंत कहो है । सत्य वचन जोग केवलीके भी है।