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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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निर्वाक्षिक हो। क्षमावान होय । कृपनता रहित उदार होय, प्रशमवान होय, प्रफुल्लित मुख होय। सोजरा पगुन रहित होय, सीलवान होय, स्वपर विचार विपे प्रवीन होय । लज्या गर्भ कर रहित होय । ठीभर बुद्धि न होय । विचक्षन होय! कोमल परनामी होय । प्रमादकर रहित होय । वात्सल्य अंगकर संयुक्त होय । आठमदकर रहित होय । आठ समकितका गुन वा आठ अंगार रहित होय, आठमल दोषकर रहित होय, षट् अनायतन तीन मूढ़ता दोषकर रहित होय । आन धर्मका आरोचक होय । सत्यवादी । जिन धर्मका प्रभावना अंग विषे तत्पर होय । गुरादिकका मुखसूं जिनप्रनीत उपदेश श्रुत एकांत स्थान विषे बैठ हेय उपादेय करवांका स्वभाव होय । गुनग्राही होय । निज ओगुनको हेय होय । वीज बुद्धि रिद्धि साढस्य होय । ज्ञान कषायोपषम विसेश होय । वैनरूनो होय । ऊंच कुल होय अरु किया उपगारने भूले नाहीं । किया उपगारने भूले है सो महां पापी है । या उपरान्त और पाप नाहीं । लोकीक कार्यके उपगारको ही सत्य पुरुष नाहीं भूले हैं । तो परमार्थ कार्यके उपगारको सत्य पुरुष कैसे भू । । एक अक्षरको उपगार भूले सो महां पापी है । विसवासघाती है कृतघ्नी कहिये । किया उपगार भूले है सो संसार विषे तीन महा पाप है। समद्रोही । अरु गुरादिक आपसो गुनकर अधिक होय । साक्षात सिप्या दिप्याधि धर्मोपदेस दे नाहीं । दे तो वे सर्व दंड देने ही जोग्य है । बहुरि गुरु आदि अपने बड़े पुरुष गुनकर अधिक होंय । तो उपदेस दे । अरु गुरु आप सन्मुख न बोले तिनके वचनको पोषनेरूप वचन कहै । अरु कदाच गुरांका कहां उपदेसमें कोई