________________
.. १३४
ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
1
तातें मोने भी दोष नाहीं । सो ज्ञान तो एक केवली ज्ञान सूर्य प्रकाशक है । सोई सत्य है । ताकी महमा वचन अगोचर है । एक केवल ज्ञान ही गम्य है । केवली भगवान विना और के जानवाकी समर्थ नाहीं । तातें ऐसे केवली भगवानके अर्थ मेरा वारंवार नमस्कार होहु । वे भगवान मोने बालक जान मो ऊपर छिमा करो । अरु मेरे शीघ्र ही केवल ज्ञानकी प्राप्त करो । त्यों मेरे भी निसंदेह सर्व तत्व के जानने की सिद्धिहोय । ताही माफिक सुखकी प्राप्ति होय । ज्ञानका अरु सुखका जोड़ा हैजेता ज्ञान तेता सुख । सो मैं सर्व प्रकारका निराकुलता सुखका साथी हूं । सुख विना और सब असार है । तातें वे जिनेन्द्र देव मोने सरन होय जन्म मरनके दुख सो रहित करहु । संसार समुद्र सो पार करहुं मेरी तो दया शीघ्र करहु । मैं संसार के दुख अत्यंत भयभीत भया हूं । तातें संपूर्न मोक्षका सुख देहु घनी कहा . कहिये । इति वक्ता स्वरूप संपूर्न । अथां श्रोता लक्षन कहिये है सो श्रोता अनेक प्रकार के हैं तिनके दिशतकर कहिये है । माटी चालनी, छेली, विलाव, वक, पापान, सर्प, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डंस मसकादिक, जौक गाईएक ऐसे ये चौदा दृष्टांत कर या सादृश्य श्रोता चौदे प्रकार जानना । याने कोई मध्यम हैं कोई अधम हैं। आगे परम उत्कृष्ट श्रोताके लक्षन कहिये है । विनयवान होय । धर्मानुरागी होय । संसारके दुखसूं भयभीत होय । श्रद्धानी होय । बुद्धिमान होय । उद्यमी होय । मोक्षभिलाषी होय, तत्वज्ञान चाहक होय । परीक्षा प्रधान होय । हेय उपादेय करनेकी बुद्धि होय, ज्ञान: वैराग्यका लोभी होय । दयावान होय मायाचार कर रहित होय..
--