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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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ज्ञानके धारक तीव्र प्रचुर कर्मोंके उदै सहित सदीव तीन काल पर्यंत सास्वते तिष्टें हैं। ताते ये निश्रै करना सो सुख ज्ञान वोर्य आत्माका निज स्वभाव है । पर संजोगते नाहीं । अरु दुख अज्ञान वीरज ज्यो पराकर्मका नास होना । अरु मोह कषाय आदि जेतेक औदयिक भाव हैं । सो सर्व कर्मके उदैतें आत्मा विषे सक्त उत्पन्न होय है । सो ये स्वभाव भी जीवका है । या भावा रूप जीवही पर है। और द्रव्य परनमता नाहीं और द्रव्य तो जीवके निमित्त मात्र है । तातें जो परद्रव्यके निमित पाय जीवके शक्ति उत्पन्न ताको उपादीक विभावः । वा अशुद्ध वा विकल्प वा दुःखरूप भाव कहिये । भावार्थ । जीवको ज्ञानानंद तो असल भाव है। अज्ञान दुख आदि अशुद्ध भाव हैं पर द्रव्यके संजोगते हैं तातें कार्यके विषे कारनका उपचार कर परभाव ही कहिये । ऐसे सप्त तत्वका स्वरूप जानना या विषे पुन्य पाप मिलाइये ताको नव पदार्थ कहिये | सामान्य कर कर्म एक प्रकार है। विशेषकर पुन्य पाप रूप दोय प्रकार है । सो आश्रव भी पुन्य पाप कर दोय प्रकार है । ऐसे ही संवर निर्जरा बंध मोक्ष विषं भी दो भेद जानना । मूलभूत यांका षद्रव्य है । काल बिना पंचास्तिकाय है । ताका द्रव्य गुन पर्याय वा द्रव्यक्षेत्रकाल भाव वा परनाम जीव मूर्त आदि गाथाके अर्थको इहां जाने । सप्त तत्वका स्वरूप निर्मल भासे है । वा प्रमान - नय - नयनिक्षेप - अनुयोग - गुनस्थान - मार्गना- तीन लोकका स्वरूप वा मूल कर्म आठ वा उत्तर प्रकृति एकसै अड़तालीस तिनको गुनस्थान मार्गना विषे बंध उदीर्न सत्ता नाना जीव अपेक्षा वा एक जीव अपेक्षा वा नाना काल