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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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पचाई रसोई दीन पुरुषकी नाई जा सुद्रके घरकी लै आवै वा जैनधर्मकी द्रोही सो जैनधर्मकी आज्ञा कर रहित विना आदरसू अहार दे सो ऐसे भोजनके रागी ताका भक्षन करतै अंस मात्र भी दरेग मानै नाहीं। कैसे है भोजन त्रस जीवाकी रास है । बहुर ऐसे ई त्रस जीवकी रासमई कंदोईकी वस्तु अथाना संधाना नौनी कानी आदि महां अभक्षका आचर्ण करै है । ताकी संसार मैं दोष गनै नाहीं अरु वाकू प्रामुक कहै है। ए प्रासुक कैसा जैसा सोक. हो तातें गृहस्थांका साग त्याग काहेको करते। सो रागी पुरुषोंकी विटंबना कहां ताईं कहिये ।।८३॥ बहुरि चित्रामकी पूतली नखै रहनैका तो दोष गनै । अरु सैकड़ास्त्री ताकौ सिखावै वदावै उपदेश देवाके संसर्ग रहे वाका लाल पाल करे । अरु वा नःरी देखवेके मिस ही वाका स्पर्श करे। वा ओषध जोतिक वैदक कर मनोरथ सिद्ध करे । बहु द्रव्यक संग्रह करे । ताकरि मनमान्या विषय पोषे । आवाका सेवन करे वाके गर्भ रहा होय तो वाकों औषध दे गर्भका निपात करे । अर कहे मैं जती हों, मैं साधु हो म्हाने पूजो । सो ऐसे साधु भाषा समर्थक कैसे होंय । पत्थरकी नाव समुद्रविषै आप ही डूबे तो ओराने कैसे तारे । बहुर स्त्रीका भलामत वाके वास्ते वाका कपड़ा सहित ही ग्रहस्तपनामे ही मोक्ष वतावे भर या भी कहे वजवृषभ नाराच संहनन विना मोक्ष नाहीं। अर करम भूमकी स्त्रीके अंतका तीन संहनन है तो स्त्री मोक्ष कैसे जाई। ताके शास्त्रमें पूर्वापरि दोषते ऐसे शास्त्र परमानीक कैसे अरु परंमानीक विना सर्वज्ञका वचन कैसे । तात नेमकर अनुमान प्रमान करि यहा जान्या गया शास्त्र कल्पित हैं। कषाई पुरुषां अपना मत