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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
ही नाहीं । जैसे एक स्त्री अपने लघु पुत्रको अपने शरीर के आड़ा पट दै पुत्रकं अंचल चुखावै मुख सूं या कह ये लड़का पुरुष है ताते याका सपर्श किये कुशीलका दोष लागे है । अरुमें परम शीलवंती हों ताते पुरुष नाम मात्रको भी सपर्श करना मौनें उचित नाहीं । पीछे अपने पतिको निंद्रा विषै सुत मेल्हा वा
खांदकी आंख चुराय दाव घाव कर आधी रात्र के समय वा दिन विषै मध्यान समय आदि चाहै जब अपने घोड़ेका चिरवादार नीच कुलीकूं बड़ा महांकुरूप निर्दई तीव्र करवाय ऐसे निंद्य पुरुषसूं जाय भोग करे 1 अरु वह स्त्री कदे जार नखे मोड़ी वेगी जाय तब बेजार उनै लाठी मूढी आदसू मारै तौ भी जारसूं विनयवान होय प्रीति ही करे । कामदेवसे निज भरतारकुं इक्ष नाहीं । तैसे ही स्वेताम्बरको प्रकार मुख सूं बोल कर सकाय थावर जीवकी बाधा होती नाहीं । जो बाधा होती तौ परम दयाल षट कायके पीहर त्रस कायके रक्षक परम दिगम्बर जोगीश्वर बनोवासी संसार भोगमूं उदासीन निज देह त्यागी परम बीतरागी शुद्धोपयोगी तरन तारन शांति मूरत इन्द्रादि देवा कर पूज्य मोक्षगामी ताका दर्शन किये ही ज्ञान प्राप्त होय । आप परका ज्ञानपना होय । ऐसे निर्विकार निर्ग्रथ गुरू भी खुले मुख उपदेश काहेको देसी । ताके मुखके कोई प्रकार हस्तादिक कर आछादन देखवे नाहीं । सो जी बात में कोई प्रकार हिंसा नाहीं । ताकौ तौ ऐसा जतन करे और भील डव्यादिनकी वा सूद्रके घरकी अनछान्यां पानी खालके सपर्से जल मदरा मांस संयोग सहित ऐसे गारके भाजन ता विषै रात्रसमय
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