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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । छ ॥४३॥ प्रानजातै प्रानकी रक्षाके अर्थ वृतिभंग कीजे तौ दोष नाहीं उपास माहै ओषध खानै तौ दोष नाहीं ॥४६॥ समोसरनमांही तीर्थंकर केवली नगन नाहीं दीसै कपड़ा पहिरै दीसै ॥४६॥ जती हाथमैं डांडो राखै ॥४७॥ मरुदेवी मातानें हस्ती ऊपर चढ़या केवलज्ञान उपज्यों ॥४८॥ भावार्थ-द्रव्यी चारित्र बिना केवलज्ञान उपनै ॥४९॥ चांडालादि नीचकुली दिक्ष्या धेरै मोक्ष जाय ॥१०॥ चन्द्रसूर्य मूल बिमान सहित महावीरस्वामीकौ बंदवा आये ॥११॥ पहला स्वर्गका इन्द्र दूजा स्वर्गको जाय स्वामी होय ॥५२॥ अरु दूजा स्वर्गका इन्द्र पहला स्वर्ग । मी ॥५३॥ जुगल्याको शरीर मुवा पीछे पढ़ाना रहै ॥ १४ ॥ जिनेश्वरका मूल शरीरको दाग देय ॥१५॥ श्रावग जतीको स्त्री आन थिरता करावै तौ असतको दोष नाहीं उपजै । जती श्रावगका विकारकी बाधा मिटी ॥ ५७ ॥ अठारा दोष सहित तीर्थकरको मानै ॥५८॥ तीर्थकरके शरीरसुं पांच थावरकी हिंस्या होय ॥१९॥ तीर्थकरकी माता चौदा ही स्वप्ना देखे ॥६०॥ स्वर्ग बारा ॥३१॥ गंगादेवीसूं भोगभूमिया पंचांउन हजार प्रनंत भोग भोग्या ॥६२॥ अरु बहत्तर जुगल प्रलयकाल समै देव उठा लै जाय ॥६२॥ बमठाका पानी निरदोष ॥६४॥ घृत पकवान व खरी रसोई वासी निरदोष है ॥६५॥ महावीर भगवानका माता पिता भगवान दीक्षा लिया पहली पर्याय पूरी कर देवगति गये
६६॥ बाहुबलं मुगलकौ रूप ॥६॥ सारा जो फल खाया दोष नाहीं ॥६८॥ जुगल्या परस्परै लेरै कखाय करै ॥६९॥ त्रेसठ शलाका पुरुषांकी निहार मान॥७॥चन्द्र चौसठ जातके मानें ॥७१॥'