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ज्ञानानन्द श्रावकाचार।
मिथ्यादृष्टिको गोतमें लीसां भाग गया १३ । स्त्रीको महांवृत पलै १४ । स्त्रीको मुक्त १५ । तीर्थकरने दीक्ष्या समय इन्द्र स्वेत वस्त्र आनंदे सो मुन अवस्थामें पहरे रहे १६ । प्रतमानीकै लंगोट कंदोरा कोधिहू १७ । श्रीमल्लिनाथजीको तीर्थकर स्त्री पर्याय मानै १८ । जुल्याकै छोड़ी कायकर देव भरतक्षेत्रमें ल्याये । चौथा कालके आद तासों फिर जुगल्यौ धर्म चलसी १९ । जुगलिया सो हरिवंश चल्यौ ॥२०॥ जतीके चौदा उपकरन २१ । मुनशुवृत्ति तीर्थकरकै घोड़ौ गनधर हुवौ २२ । मुन श्रावकका घरसों आहार ल्यावै । अरु घरका किवाड़े जोड़ खावै ॥२३॥ अरु दूनौ अहार करै ताका अर्थ यह जौ कोई साधु अहार विहार ल्यिाय हौ आहार किये पाछै अवशेष बाकी रहौ ते अहारकों बेला आद घनौपवासके धारी और कोई साधु होय ताका घेटमें खवाय दीजिये तो दोष नाहीं । साधुको उदर छै सो रोटी समान छै। भावार्थ-वेला आदि घनौपवासा विवै और साधुको बच्यौ भोजन लैनौ उचित है यामैं उपवासका भंग नाहीं औ निरदोष आहार छै ॥२४॥ नौ पानी आहार करै ताका अर्थ । यह जो जलकी बिधि नाहीं मिलै तौ नित पी अर त्रषा बुझावै । साधाको कैसो स्वाद अरु नौजातका बीधैका भेद सो। घृत १ दुग्ध १ दही १ तेल १ मीठा १ मदमांस १ सहत १ एकेबोरे । अथवा कोई श्रावकानै पानी आहार पचाया होय सो भी साधुको लेना उचित है ॥२५॥ निंद्यक मारयांका पाप नाहीं ॥२६॥ जुगला भी मर नर्क भी जाय ॥२७॥ भरतनी ब्राह्मनी भागनी भागनीको परनैके अर्थ अपनै घरमें नाखी ॥२८॥ भरतनी गृहस्त