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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
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जांदवा मास भक्षौ ॥ ७२ ॥ मानषोत्तर आगे मनुष्य जाय ॥ ७३ ॥ कामदेव चौवीस नाहीं मानें ॥७४ || देवता तार्थंकरका मृतक शरीरका मुख माहेकी डाढ़ उपाड़ स्वर्ग लै जाय पूजै ॥ ७५ ॥ नाभि राजा मरुदेवी जुगलिया ॥ ७६ ॥ नव ग्रेवेयकका वासी जीव देव अनुसनौ पर्यंत जाय || ७७ || चेल्यों आहार ल्यायौ सर्वग्य सेवाका पाता पातरामै थुको । चेलै गुर जूंठ उत्तम जान खाय गयो । तातें केवलज्ञान उपज्यौ || ७८ || अरु शास्त्रकौं बांचन वेठनेकौ चौका पटा ताके नीचे धरि देय, या शास्त्रको सिरानें दे सोवै अरु या है ऐ तौ जड़ है । याका कहा बिनय करिये अरु प्रतमाजीको कहै यह भी जड़ है याका कहा विनय करिये । अरु प्रतमाजीको भी कहै यह भी जड़ है याकौ पूजै वा नमस्कार करें कहा फल होय ॥ ८० ॥ अरु कुदेवादिक के पूजवामें अटकाव नाहीं वह तौ गृहस्तपनाको धर्म है ॥ ८१ ॥ अरु औराने तौ कहे धर्मके अर्थ अस मात्र भी हिंसा कीजे नाहीं । अरु मान बड़ाईके अर्थ सैकरा स्त्री पुरुष चैत्र मास आदि तीन ऋतु विषै गारा खूदता खूदता असंख्यात वा अनंत त्रस थावर जीवकी हिंस्या कराय अपने निकट बुलावै व आपको नमस्कार करावे व चालता हुवा बी जाय । आवता पांच सात कोंस ताई जाय । इत्यादि धर्म अर्थ नाना प्रकारकी हिंसा करे ताका दोष गर्ने नाहीं । अरु मूढ़े पाटी राखे कहै पवनकायकी हिंसा होय है । सो मुखका छिंद्र तो सासता मुदित रहै है अरु बोलें भी मूर्खकी आड़ी सांसोंसांस निकसता नाहीं । सांसतौ नाककी आड़ निकसे है। ताके तौ पाटी दे नाहीं । अरु मूढ़ाकी लालसों असंख्यात त्रस जीव उपजै ताका दोष