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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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जाननी । बहुर वर्द्धमान स्वामीनै मुक्ति गया पीछे इकईस हजार बरस प्रमान पंचमकाल ताके केताइक काल बरस अठाईसके अनुमान गया तब भद्रवाहु स्वामी आचार्य भये । ता समय केवली अवधिज्ञानकी विक्षित्ति भई । ताहीं समय एक चन्द्रगुप्तनाम राजा उज्जैनी नगरीका भया। तानै सोला स्वप्न देख्या ताकौ फल भद्रवाहु स्वामीनै पूछ्या तब वा जुदा जुदा स्वप्नका फल बतायो सो ही कहै। कल्पवृक्षकी टूटी डाहली देख वाकरि क्षत्री दीख्या भार छोड़सी । सूर्य अस्त देखवाकर द्वादसांगपाठीका अभाव होसी। चंद्रमा छिद्र सहित देखवा कर जिनधर्म विषे अनेक मत होसी, भगवानकी आज्ञासू विमुख होय घर घर मन मान्या मत स्थापसी । बारह फनहका सर्प देखवाकर बारह बरस काल पड़सी, यती क्रिया आचरणसं भ्रष्टहोसी। देव विमान आपूढा जाता देखवाकर चारन मुन कल्पवासी देव विद्याधरि पंचमकाल विष न आवसी । कमल कुंडा विष ऊंगा देखकर संयम सहित जिनधर्म वैश्य घर रहसी, क्षत्री विप्र विमुख होसी । नाचता भूत देखवाकर नीच देवका मान होसी, जैन धर्मसू अनुराग बन्द होसी । चमकता अग्निया देखवाकर निनधर्म कटै अल्प होसी, कोई समय घनौ घटसी कोई समय अल्प बधजासी, मिथ्यामतनै सेइसी । सूका सरोवर विषै दक्षिन दिशाकी तरफ तुच्छ जलकै देखवाकर दक्षिणकी तरफ धर्म रहसी, जहां जहां पंच कल्यानक भये तहां तहां धर्मका अभाव होसी । सोनाके पात्रमें स्वान खीर खाता देखवा करि उत्तम जनकी लक्ष्मी नीचनन भोगसी । हस्ती ऊपर कपि चढ़ा देखवाकरि राजा नीत छांड़ प्रजानै बांध टूटसी। वृषभ तरुण रथकै जुता