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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
१११ स्थापित कर शुद्ध हुवा अरु केताइक प्रमादका बशीभूत हुवा विषय कषायके अनुरागी धर्मसूं शिथिल हुवा अरु कायरपनाने धारता हुवा अरु मनमें चितवन करता हुवा यह जिनधर्मका आचार तौ अति कठिन तातें मैं ऐसे कठिन आचारन आचारवे समर्थ नाहीं। ऐसा ही भ्रष्ट होते होते सर्व भ्रष्ट हुआ अरु अनुक्रम अधिक भ्रष्ट होते आए सो प्रतक्ष अबै देखिये है बहुर ऐसेई काल दोष कर राजा भी भ्रष्ट हुवे अरु जिनधर्मका द्रोही होय गये। ऐसे ऐसे सर्व प्रकार धर्मकी नास्ति होती जान जे धर्मात्मा गृहस्थी रहे थे ते मनमें विचार करते हुए अब काईं कर नौ के वली श्रुतकेवली ताकौ तौ अभाव हुआ अरु गृहस्थाचार्यपूर्व ही भ्रष्ट भये थे अब राजा अरु मुन भी भ्रष्ट भये सो अब धर्म किसके आसरे रहै । तासूं अपने धर्म राखने सौ अबै श्रीजीकी ढ़ीला ही पूजा करौ अर ढ़ीला शास्त्र यांचौं । अरि कुवेष्यांने जिन मंदिर बाहरै निकास दियौ । जे भगवानका अबिनय बहुत करै आपको पूजावै अरि देहरा घर सादृश्य कर लिया । सोया बातका महत पाप जान जे ग्रहस्था धर्मात्मा कुवेप्यां हलाहल समान खोटा 'धर्मका द्रोही जान वाका तजन किया अरु श्री वीतराग देव सों अर्ज करते भये, हे भगवान ! तौ थाका बचना के अनुसार चला तातै तेरापंथी होते सिवाय और कुदेवादिककौ हम नाहीं सेवै है, वाका सेवन नर्कादिकके कारन है अरु तुम स्वर्ग मोक्षके दाता हौ तातें तुम ही देव हौ, तुम ही गुरु हौ, तुम ही धर्म हौ तातै सेव हों और नाहीं मे त्रौं हौं । तुमें न सेवै है सो वह
तुमा