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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
गई। सिद्ध धर्म की प्रवर्त्त बरजोरी भी चाल सकें नाहीं हिंसा ही प्रतिक्ष देषिये ऐसे श्वेतांबरमती उतपत्ति भई । याकौं विशेष जान्या चाहौ तौ भद्रबाहु स्वामी चरित्र विषै देख लेना । बहुर पीछे अविशेष बुद्धि सुद्ध दिगंबर गुरू रहे थे ते केताईक काल पर्यंत तौ वाकी भी परपाटी सुद्धि चली आई | पीछे काल दोषके बसतें 1 कोई भ्रष्ट होने लागे सो बनादिकनै छोड़ रात्रि समय भयके मारे नगर समीप आ रहे हुवे पाछे वा विषै शुद्ध मुनराज थे ते निंद्या करते हुए हाय हाय या कालकौ दोष मुनकी सिंहवृत्त था सो - स्यालवृत्त आदरी सिंहनै बनके विषै काहेका भय । त्यों मुन्यांनें काहेका भय स्याल रात्र के समय नगरके आसरे आय विश्राम लें त्यों ही स्यालवृत जे भ्रष्ट मुन नगरका आसरा ले हैं, प्रभात समय तो सामायिक करवे कौ वैठसी अरु नगरकी लुगायां गोवर पानी के अर्थ नगरके बाहर आवसी सो याकी वैराग्य संपदाकू लूट लै जासी तब निधर्न होय नीच गति विषै जाय प्राप्त होसी अरु लोक विषै महां निंद्याने पावसी । सो नगरके निकट रहने कर ही भ्रष्टताने प्राप्त होवै । सो और परग्रह धारक गुरूकी कहा बात । सो वे गुरू भी ऐसा ही भ्रष्ट होते होते सर्व भ्रष्ट हुवे । अरु अनुक्रमते अधिक अधिक भ्रष्ट होते आए सो प्रतक्ष अब देखिये है । बहुर ऐसे ई काल दोष कर राजा भी भ्रष्ट होते आये सर्व भ्रष्ट हुवे । अरु जिन धर्मका द्रोही होय गये सो ऐसे सर्व होती जान देख धर्मात्मा गृहस्थी रहे थे ते - हुवे अब काई करनौ केवली श्रुतकेवलीका तो अभाव ही हुवा अरु गृहस्थाचार्य पूर्व ही भ्रष्ट भये थे । अरु राजा अरु मुन भी
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प्रकार धर्मकी नास्ती
मन विचार करते
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