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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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काय । सो प्रथम चौदा कुलकरि भये। तहां पर्यंत नौ कोड़ा कोड़ी सागर ताई जुगलिया धर्म रह्यौ संयमका अभाव अरि दस प्रकारके कल्पवृक्ष ता करि दिया भोगताकी अधिकता बहुर पीछे अंतका कुलकर आदिनाथ तीर्थङ्कर भये सो जब प्रभु दिक्षा धारी तिनके साथ चार हजार राजा दीक्षा धारी सो ये मुनव्रतके परीखा सहवान असमर्थ भये नगर अयोध्यामें तो भरत चक्रवर्तिके भय कर आये नाहीं और वन फूल अनछान्या पानी भक्षण करने लगे तव बनकी देवी बोली रे पापी ! नग्न मुद्राधार थै अभख्यका भक्षण करौ है । थानै शिक्या है कि जिनधर्म विषै क्षुधादिककी परीखा न सही जाय तौ और लिंग धारौ पाछे वा भ्रष्टि ऐसा ही किया। कैई तौ जटा बांध्या, केई बभृत लगाया, केई योगी, कैई सन्यासी, कनफड़ा एक दंडी, त्रिदंडी, तापसी भये। कैयां लंगोटी राखी इत्यादि नाना प्रकारके भेष धरे पीछे हजार बरस पाछै भगवानकै केवलज्ञान उपज्या सो केतांई सुलट दीक्षा धारी, केतांईक वैसा ही रह्या ताकै नाना प्रकारके भेद भये बहुरि भरत चक्रवर्ति दान देना विचारा सो द्रव्य तो बहुत अरु लेनेवारे कोई मात्र नाहीं, तब सब नगरके लोग बुलाये अरु मार्गमें हरित तृण उगाये, कछु मार्ग प्रासुक राखा अरु पुरुषनको आज्ञा दीनी । ईठां अप्रासुक मार्ग आयौ तब निर्दयी है हृदय जाका ते तो बहुत लोग उस ही हरित ऊपर पग दै दै आये । अरु दया सलिल कर भीना है चित्त जाका ते उहां ही खड़े रहे आगे नाहीं आये । तब चक्रवर्ति कही इस मार्गसे आवो तब वा फेर कही हौं तौ सर्व प्रकार हरित कायकों विरोधौं नाहीं । तब भरतजी उस पुरुषने दयावान जान प्रासुक