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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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श्रावक साद्रश्य महंत बुद्धिके धारक अनेक जैनशास्त्रके पारगामी बड़े बड़े राजान करि माननीक ऐसे गृहस्थाचार्य हुते ता समीप जाय प्रार्थना करै । हे प्रभु ! मेरा जिनमंदिर करायवे का मनोर्थ है आपकी आज्ञा होय तो मैं ए कार्य करूं। पीछे धर्म बुद्धी गृहस्थाचार्य कहै याका उत्तर प्रभात काल दूंगा । अवार तुम डेरै जावौ । पाछे वे गृहस्थाचार्य रात्रिनै मंत्रका आराधन करि सैन करै । पीछे रात्रिने स्वप्ना देखै सो भला शुभ स्वप्ना आया होय तौ या जानै ए कार्य निर्विघ्नताको पहुंचसी । अशुभ आया होय तो या जानै ए कार्य निर्विघ्नपनै होनेका नाहीं। पीछे गृहस्थी फेर आवै ताळू शुभ स्वप्ना आया होय तौ ए कहै विचारयासों करौ सिद्धि होसी । अशुभ आया होय तौ ए कहै थाके धन है सो तीर्थयात्रा आदि धर्मकार्य विष खरचौ । ए कार्य यासू होता दीसे नाहीं। जा कार्य बनि आवै सो ही करिये । अरु जो शुभ स्वप्न आवै तो यह कहिये प्रथम तो अपनै परिणाम विषै द्रव्यका संकल्प करै । ऐता द्रव्य मने याके अर्थ खरचना । पाछै जैसा परिणाम होय तैसा कार्य विचारेंगे। अर या द्रव्य विषै मेरा मंत्र नांही ताकू अलाधा एक जायगा धरै ऐसा नांही। कै परिमान किए बिना देहराके अर्थ अनुक्रमसों खरचै जाय सो याका परमान काई पहली तो परनाम भला होय ताकर बहुत द्रव्य खरचना विचारया है पीछै परिनाम घषि जाय या पुन्य घटि जाय तौ पूर्व विचार माफक खरच सकै नाही, बहुरि जहां मंदिर कराईये सो वह बड़ा नगर जहां जैनी लोग घना बसता होय ताके बीच आस पास दूर गृहस्थयाका घर छोड़ पवित्र ऊंची भूमिका दाम दै मोल लेय बरजोरी नांही लेय । पीछे,