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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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annanname namin है । सो सर्व दोषानै छोड़ सम्पूर्ण गुण सहित यथा जात स्वरूप निपुणता दोय चार पांच सात बरसमें होय । एक तरफनै तौ जिनमंदिरकी पूर्णता होय । एक तरफनै प्रतिमाजी अवतार धेरै पीछे घनै गृहस्थाचार्य पंडित अरि देश देशका धर्मी ताकू प्रतिष्ठाका महूर्त ऊपर कागद दै दै घना हेतसूं बुलावै । सर्व संघको नित प्रति भोजन होय और सर्व दुखितङ जिमावै नित प्रति अरु कोई जीव विमुख न होय रात्र दिवस ही प्रसन्न रहै । अरि कुत्ता बिलाई आदि तियच भी पोख्या जाय वे भी भूख्या न रहै । पीछे भला दिन भला महूर्त विषै शास्त्रानुसार प्रतिष्ठा होय । घनौ दान बटै इत्यादि धनी महिमा होय । ऐसी प्रतिष्ठी प्रतिमानी पूजना योग्य है । विना प्रतिष्ठी पूजना योग्य नाहीं । अरु जानें भोले सौ बरस पूजता होय तौ वा प्रतिमा पूजनै योग्य ही है। अंग हीन प्रतिमा पूज्य नाहीं उपंग हीन पूज्य है । अंग हीन होय ताकू जाका पानी कड़े टूटै नाहीं ता जल विष पधराय देना याका विशेष स्वरूप जान्या चाहौ तौ प्रतिष्ठा पाठ विषै वा धर्म संग्रह श्रावकाचार आदि और श्रावकाचार विर्षे जान लेना । इहां संक्षेप मात्र स्वरूप दिखाया है । ऐसे. धर्म बुद्धिनै लिया विनय सौ परमार्थके अर्थ जिन मंदिर बनावै है । वा नाना प्रकारके चमर छत्र सिंघासन कलस आदि उपकरन चहौड़े तो वह पुरुष थोरा सा दिनामें त्रैलोकी पद पावै । वाका मस्तक ऊपर भी तीन छत्र फिरें, अनेक चमर दुरै और इन्द्रादिक संसारीक सुखकी कहा बात ऐसे चौथा कालके भक्त पुरुष जिन मंदिर निर्मापै ताका फल व स्वरूप कया । अब पंचम काल विषै बनावै ताका स्वरूप कहिये है।