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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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फलनै शीघ्र दे है । ताते जिनदेवकी भक्ति परम आनंदकारी है। आत्मीक सुखकी प्राप्ति याही ते होय है ताते में खर्गादिकके लौकिक सुखने छोड़ि अलौकिक सुखनै वाक्ष हूं । और म्हारे कोई बातका प्रयोजन नाहीं । संसार सुखसू पूरै पड़ी धर्मात्मा पुरुषकै तौ एक मोक्ष ही उपादेय है। मैं हूं नै एक मोक्ष हीका अर्थी हूं । सो याका फल मेरे उपजै । भावार्थ-धर्मात्मा पुरुप तो एक मोक्ष हीने चाहै है । मान बड़ाई जस कीर्ति वा गौख वा स्वर्गादिक पुन्यफल नाहीं चाहै है। याकी चाह अधम पुरुषकै होय है याहीकी चाहके अर्थि जिनमंदिर करावै है सो वे जीव अधोगतनै ही जाय है । आगे प्रतमाका निर्मापनके अर्थ खान जाय पाखान ल्यावै ताका स्वरूप कहिये है । सो वह गृहस्थी महां उक्षावमूं खान जावै खानकी पूजा करै । पीछे खानकू न्यौत आवै । अरु कारीगरनै मेल आवै सो वह कारीगर ब्रह्मचर्य अंगीकार करै । अल्प भोजन ले उजल वस्त्र पहिरै । शिल्पशास्त्रका ज्ञानी घना विनयसूं टांकी करि पाखानकी धीरे धीरे कोर काटे। पीछे वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य सहित और घना जैनी लोग कुटुंब परवारके लोग और गाजा बाजा बजाते मंगल गावते जिन गुणके स्तोत्र पढ़ते महा उत्सव सू खान जाय। पीछे फेरि वाका पूजन कर विना चामका संजोगकरि महा मनोज्ञ रूपा सोनाके कामका महा पवित्र मनकुं रंजायमान करनै वारा रथ विषै मोकली रूईका पहलामै लपेट पाखान रथमें धरै । पीछे पूर्ववत् महा उत्सवमूं जिनमंदिर ल्यावै । पीछे एकांत स्थानक विषै घना विनय सहित शिल्पशास्त्र अनुसार प्रतमाजीका निर्मापन करै ता विषै अनेक प्रकार गुण दोष लिख्या