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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
मानक या पन्ने लिया घना काल ताई ना रहै ऐसा अभिप्राय सहित व मत मतांतरका पक्ष न लिया गौरव सहित महंत पुरुषानै आ बिना अपनी इच्छा अनुसार जिन मंदिरकी रचना निहि तिहि नगर विषै वा निहि तिहि थानक विषै बनावै है । देहराके अर्थ द्रव्य संकल्प किये बिना द्रव्य लगावै है । वा संकल्प किया द्रव्यनै आपना गृहस्थपनाके कार्य . विषै लगावै है । अथवा नारियल आदि निर्माल वस्तु भंडार विषै एकठा करकै वाका द्रव्य लगावै है वा पंचायतीमें नाम मांडि बरजोरी गृहस्थान पै रुपया पइसा मंगाय लगावै पीछे भाड़े दै लेके अर्थ मंदिरके तले मोकली दूकानै बनावै। तिन वि कदोय छीया दरजी हरवान्या पसारी गृहस्थी आदि राख है । वा नाजसू हाट भर देसी। गृहस्थीतो उठै कुसीलादि सेवै; कदोई रात दिन भट्टी बालै नाजकी नामें जेता नाजका कनका तेता ही जी परै | सो ऐसा पाप जहां पर्यंत मंदिर रहै तहां पर्यंत हुआ करै । वाके भांडेका द्रव्य जिनमंदिरके कार्य लगावै वा पूजा करने वारे बहुर जिनमंदिर विषै कुलिंग्यानै राख घोरानघोर श्रीजीका अविनय करावै । उहां ही खाय उहां ही पीवै उहां ही सोवै वा मंत्र ज्योतिक वैद्यक कौतुक करै जुवा खेलै स्त्रीयांकी हांसी मसकरी करै । देहराराकी वस्तु मन मानी वर्ते । वा बेंच खाय आप पुजावै प्रतिमाजीका अविनय करै । गृहस्थाका घरा ले जाय ऐसा पाप कुलिंग्यानके करावै और कुलिंग्या देहरै आवै सो महा बिकथा कर पाप उपार्ने । प्रतिमाजीकी पूठ दै परस्परि पगा लागे । मालीकू दैन कि रोटी श्रीजीको चहोडै, रात पूजा करावै वा तीन लोकका