________________
ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
है। मूल विना धर्मरूपी वृक्षके स्वर्ग मोक्षरूपी फल कदाचि लगैं नाहीं। तीसूं हे भाई ! आलस्य छोड़ प्रमाद तजि खोटा उपदेशका वमन कर भगवानकी आज्ञा माफिक प्रवर्तो। घनी कहवाकर कांई ए तो अपना हेतकी बात है जामें अपना भला होय सोको करना, सो देखौ अरहंत देवको उपदेश तौ ऐसा है या चौरासी मांहिंसू कोई एक दोय भी लागै तौ नर्क निगोद जाय । अरु कुलिंग्या जिनमंदिरनै अपना घर सादृश्य करि गादी तकिया लगाय ऊंचा चौका चौकी बिछाय ऊपर बैठ बड़े महंत पुरुषानै पुजावै है याका फल कैसा लागैगौ सो हम नाहीं जानें है। अरु गृहस्थयाकी भूल कैसी, ऐसे महंत, पापके धारक, संसार समुद्र विषै खेवटिया बिना पत्थरकी नाव साद्रश्य ताकों सत गुरु मानें हैं धर्म रूपी अमोलक रत्न मुसावै हैं। तौ भी मान बड़ाईके अर्थ आपनै धन्य ही मानै है । बहुरि गृहस्थाने बरजोरी बुलाय भावना करावै है सो यह तो मुनिकी वृत्ति नाहीं मुनि तो भमरा कीसी नाईं उड़ता फूलकी बास ले फूलनै विरोधै नाहीं त्योंही उदंड उतरै । बिना बुलाया अनाची वृत्य भरे गृहस्थीके बारनै षड़ा छयालीस दोष बत्तीस अंतराय टालि उदासीन वृत्ति कर विरस अल्प आहार लेय तत्काल वनमें उठ जाय है। गृहस्थनै पीडै नाहीं ताका नाम भांवर वृत्ति कहिये है। अरु जा कुलिंगाकी भावना कैसी सो हमनै जानै । अणे चौथाकाल विष बड़े जिन मंदिर कराये अरु पांचवां काल विषै जिनमंदिर कराया ताका स्वरूप व फल वर्णन करिये है । चौथा काल विष बड़े धनाढ्यके अभिलाषा होती । मेरे बहुत दुःख ताकू धर्मके अर्थ कछू खरचाईये है । ऐसा विचार कर धर्मवुद्धी पाक्षिक