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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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धर्मका महा अविनय कीया। बिना दियाका अर्थ ए है जौ अरहंत देव तौ वीतराग हैं तातें ऐ तो आप करि कोई ने दे नाहीं। तातै विना दिया ही कहिये है जैसा रानादिक बड़े पुरुष कोई वस्तु नजर करि पाछै वाका विना दिया ही मांगते है तौ वाकै राजा महादंड दै है। ऐसे ही निरमाल्यका दोष जानना। और भगवानके अर्थ चहाया सर्व द्रव्य परम पवित्र है। महा विनय करने योग्य है । परन्तु लेना महा अनोग्य है । या समान और अनोग्य नाहीं तातै निरमाल्य को तनना । वा निरसयल वस्तुका लेवा वाला ताकौ उधार दै नाहीं । बहन पुत्री आदि सुवासिनी ताकौ द्रव्य उधार तनक भी गृहन कर नाहीं इत्यादि अन्याई पूर्वक सब ही कार्यकू धर्मात्मा छोड़े है, जा कार्य विर्षे अपजस होय अपना परिणाम संकलेश रूप रहे वा शोक भयरूप रहे ता कार्यकू छोड़े। तब धर्मात्मा सहज ही होई ऐसा भावार्थ जानना । ऐसे प्रथम प्रतिमा को संयमी नीत मारग चालै छ । घरका भार सौप दूजी प्रतिमाका ग्रहण करै सो कहे है। पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत ए बारह व्रत अती चार रहित पालै । ताकू दूसरी प्रतिमाका पालक कहिये प्रतिमा नाम प्रतिज्ञाका है । अब याका विशेष कहिये है । द्वेषबुद्धि कर चार प्रकार त्रस जीवका घात । अरु विना प्रयोजन पांच प्रकारका थावर जीवका घात नाहीं करै ताका रक्षक होई । भावार्थकैई या कहै तूनै पृथ्वीका राज यूं छं । तूं थारां हाथसूं कीड़ानै मार अरु नाहीं मारै तौ थारा प्राननका नाश करिसूं । ऐसा सजादिकका हठ जानै। जो हुं याकू कही न करिस्यूं तौ ए विचारी