________________
-
-
५२
ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भावार्थ-तीर्थंकर पद वा सिद्ध पद पावै है। सो ऐ न्याय ही है जैसा वीज बोबै तैसा फल लागै । ऐसा नाहीं के वीन तौ
और ही वस्तुका अरु फल और ही वस्तुका लागें। सो ए त्रिकाल त्रिलोक विषै होइ नाही यह नियम है । सो ही जगत विषै प्रवृत्ति देखिये हैं जैसा जैसा ही नाज वोवै तैसा तैसा ही निपजै । सो जैसा ही वृक्षका वीज वोवै तैसा तैसा ही वृक्षके फल उपले सो जैसा जैसा ही पुरुष वा स्त्री वा तीर्यचनका संयोग होइ ताकै तैसा ही पुत्रादिक उपनै । ऐसा वीनके अनुसार फलकी उत्पत्ति जाननी । तीसू श्री गुरु कहै हैं। हे पुत्र कुपात्र अपात्रनै छोडि सुपात्र अर्थ दान करहु । अथवा अनुकम्पाकरि दुखित भुखित जीवानै पोषि जैसे जीवाकी बाधा निवृत्ति होइ । वा गुरुकी ठसक धराव ताको दमरी मात्र भी देना उचित नाहीं । बहुरि कैसा है अपात्रका दान जैसे मुरदाका चकडोल काड़िये है । अरु रुपैया पैसा उछालिये है अरु चंडालादिक चुन चुन ले है अरु मुख सूं धन्य धन्य करें हैं । परन्तु दानके करने वाला घरका धनी तौ ज्यू त्यू देखै है। यूं त्यूँ छाती ही, कूटै है तैसे ही कुपात्रने दान दिया लो भी पुरुष जश गावै है । परन्तु दानके करनै दैनै वालौकुं तौ नरक ही जाना होसी। सम्यक्त्व सहित होय तौ पात्र जानना अरु सम्यक्त्व तौ नाहीं है अरु चारित्र है ते कुपात्र जानना । अरु सम्यक्त्व वा चारित्र हू है नाही ते अपात्र ही है। ताका फल नरकादि अनंत संसारी है । अरु सर्व प्रकार ही दान नाहीं करै है सो कैसा है मसानके स्थूल मुरदा समान है। अरु धन है सौ याका मांस है । अरु कुटुम्ब परवार सो कैसै है गृह पक्षी है याका