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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
खाइ खाइ बड़ा हुवा । अरु जिनमंदिरमै अपनै रहवाका घर किया अरु शुद्ध देव गुरु धर्मके विनयका तौ अभाव किया। अरु कुगुरादिके सेवनका अधिकारी हुवा ऐसा ही औरानै उपदेश दिया। जैसे अमृतनै छोड़ हलाहल विषनै सेवै वा चिंतामणि रत्न छोड़ि कांच खंडकी चाह करै वा कामदेव सौ भरतार छोड़ी असपर्श शुद्र अंधा बहरा गूंगा लूला कोड़ी तासू विषय सेय आपनै धन्य मानै अरु या कहै शीलवंती पतिव्रता स्त्री हूं । सो इसी रीत वेश्या विष पाईये है । अरु ताहीका आंधा जीव आसरा लेइ धर्म साधना कहै है। अरु वह आपकू पुनाय महंत माननै लगा अरु अपनै मुखसै कहै है भट्टारक दिगम्बर गुरू हौं म्हानै पूजौ। अरु नाहीं पूजौ तौ दंड देस्यां वा थाके माथै भूखा रहस्या । वा माने चंदा करस्या । अरु स्त्री साथ लिया फिरै सौ भट्टारक नाम तौ तीर्थंकर केवलीका है । अरु दिगम्बर कहिये दिग नाम दिशाका है अवर नाम वस्त्रका है सो दशू दिशाके वस्त्र पहिरै होय ताकू दिगम्बर कहिये है । निग्रन्थ नाम परिग्रह त्यागका है तातै तिल तुस मात्र परिग्रह तौ बाह्य नाही अर चौदा प्रकारको आभ्यंतर तासू रहित सौ वस्तुका स्वभाव तौ अनादिनिधन है ऐसा अरु यह यसै मानै सो यह बात कैसी है। म्हारी मां अरु वांझ सो जगत विषै परिग्रहसू नरकां जाइ है । अरु परिग्रह ही जगत विषै निंद्य है। ज्यू ज्यू परिग्रह छोडै त्यों त्यों संजम नाम पावै । सो या बात तो ऐसी न्याय बनी अरु हजारा लाखा रुपैयाकी दौलति अरु घोड़ा व हल रथ पालकी चढ़नैकुं चाकर कंकर अरु कड़ा मोती पहरै । नरक लक्ष्मीके पानग्रहन करनैकी दशा करै है।