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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आनन्द प्रावकाचार ।
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वस्तुका भक्षण करना, याकै खाया बिना तो रहौय नाहीं । तातै अन्नकी वस्तू छुड़ाय मर्यादामें राख्या अन्नका निमित्त तौ रंकादिककै भी सास्ता पाइये । दूध पेड़ादिक निमित्त कोई पुन्यवानकै कोई काल वि. पाइये है। तातें घनी वार धनी वस्तुका रात्रिनै संवर होय है। ऐसा प्रयोजन जानना तातै बुद्धिमान पुरुष क्षे, ते असंख्यात त्रस जीवांकी हिंसा करि निपनी अनेक त्रस जीवकी रासि महा अक्रिया सादृश्य अभक्ष्य ऐसी कंदोईकी वस्तू. ताकू कैसे खाय अरु ठग गई है बुद्धि जाकी आचार रहित है स्वभाव जाका । परलोकका भय नाहीं है जाके ऐसा पुरुष कंदोईकी वस्तू खाइ है । तातें अपना जानै हित चाहिये ते पुरुष हलवाईकी वस्तू सर्वथा तनो । बहुरि कोई अज्ञानी रसना इन्द्रीका लोलपी ऐसे कहै है । कंदोईकी वस्तू बजारका वांसना विषै मद्य मांस वापरै । ऐसा गूजर रजपूत कलार आदि सूद्रके घरका दही, दूध, रोटी आदि वस्तू प्रासुक है तातें निर्दोष है सो महा त्रस थावर जीवाकी हिंसा करि निपजी मद्य मांसके वांसन विषै धरी । ऐसी वस्तू प्रासुक निर्दोष होय तो और उपरांत दोषीक वस्तू कैसे होसी हाड़ चामके देषनैका मृतगके सुननैकाई भोजन विषै अंतराइ गीत ऐ तो प्रतक्ष खायवेका कैसा दोषण गिननौ जाते जे वस्तू हिंसा करि निपनी वा अक्रिया करि निपजी सो धर्मात्मा पुरुष कोई आचरै नाहीं। प्रान जावै तौ जावो पन अभक्ष वस्तू खाना उचित नाहीं। दीनपना सिवाय और पाप नाहीं है। तातै जिन धर्म विषै अजाचीक वृत्ति कही है। आगे सहतका दोष दिखाईये है। माखी, खाट या मीठा रस वा जल ओंट विष्टादि मुख्यमें लै आवै। सो वाके मुख्य