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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । रसोई नाखाइ है । नाना तराकी तरकारी मेवा मिष्टान्न दही, दूध, घृत, हरित काय सहित बार बार भोजन बनवाबै है । पीछे राजी होय होय चार बार तिर्यचकी नाई पेट भरै है। अरु या कहै है मैं बड़ा क्रिया पात्र हूं, बड़ा मैं संजमी हूँ ऐसा झूठा डिंभधारी धर्मका आसरे वापरा भोला जीवांने ठगे है। जिनधर्म विषै तौ जहां जहां निश्चय एक रागादिक भाव छुड़ावनेंका उपदेश है। और याहीके वास्ते अन्न जीवकी हिंसा छुड़ाई है। सो इन पापी राग भाव व अन्य जीवकी हिंसा अपूठा बंधाय दीनी तातै जा रसोई विषै ज्यों ज्यों रागभाक्की वा अन्य जीवाकी हिंसाका निमित्त नाहीं होवै है, सोई रसोई पवित्र है जा विषै ऐ दोष बंधे सोई रसोई अपवित्र है ऐसा जानना बहुर कुलिंग्या आयनां विषय पोखवाके अर्थ धर्मका आसरा लेय । अष्टांनका सोलाकारन दसलाक्षनी रत्नत्रय आदि पर्व दिना विष आक्षा आक्षा मन मान्या नाना प्रकार महा गरिष्ट और दिव विषे कबहु मिले नाहीं। ऐसा तो भोजन खाना अरु चोखा चोखा, वस्त्र आभूषण पहिरना ताका उपदेश दिया पाछे ऐसे ही आय विषय पोखने लगे तो गृहस्थानिकू काहेको मनै करै । सो भादवांके पर्व दिना विषै कखायकू छोड़ना। संजमको आदरना जिनपूजा, जिन शास्त्राभ्यास, जागरनका करना दानका देना, वैराग्यका बंधावना, संसारका स्वरूप अनित्य जानना। ताका नाम धर्म है, विषय कषाय पोखनेका नाम धर्म कदापि नाहीं झूठा मान्या तो गरज काई वाका फल खोटा ही लागसी । आगे कंदोईकी वस्तु खानेका दोष दिखाईये है। प्रथम तो कंदोईका स्वभाव निर्दई होइ है । पाठे लोभका प्रयोजन परै ताकी विशेष