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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
खारा रस पौंहुचै तहां पर्यंत सर्व जीव मृत्यूर्व प्राप्त होय। बहुरि कपराकौं सावन सेती फेर दरियावमें धोवै । सो वैसे ही जहां ताई सावनका अंस पहुंचे तहां तांई दरियावका दरियाव प्रासुक होय जाय । जैसे एक पानीका मटका विषै चिमटी भर लोंग डोंडा लायचीका नाखवा कर प्रासुख होय है । तैसे एक दोय कपड़ाका धोयवा करि सर्व दरियावका जल प्रासुक होय है । अरु केई महत पापके धारक सैकरा हजारा थान छदाम अधेलाके वास्ते धुवाय बेंचें है । तो वाके पापकी बार्ता कौन कहै । तातें धर्मात्मा पुरुष सर्व प्रकार धोबीके कपड़ा धुवायवौ तौ तनौ याकौ पाप अगिनित है । अरु कदाच पहिरवेका धोये विना न रहै जाय तो गाढ़ा नातना सू दरियावके बाहर कुंड़ी आदि विषै पानी छान छान पाछै जीवानां दरियाव व कुवामें विलोय कपराकी जू लीख सोधि धोईये। भावार्थ-मैला कपरानै डील सूं उतठरया पाळू दस प्रन्द्रह दिन तो पड़ा राखिये । पीछे फेरि भी वा विषै कोई जू लीख रही होय ताकू नेत्रकर देखिये अरु कोई नजर आवे ताकू लेय और डीलके पुरा या वस्त्र ता विषै मेल्हि और ठौर न नाखिये. नाहीं कपड़ा विषै जुवे मैंलनै कर घना दिनताई मरै नांही है । आयु पूरीकर ही मेरै है बहुरि ऐसी जागा धोइये कि दरियावके बाहर प्रासुक स्थान विषै जल उहांका उहां ही सूष जाय व भूमि विषै सूख जाय अरु जैसे कदाचि वह पनी वहकर अपूठा दरियाव हीमें जाय, तौ अनछान्या पानी सादृश्य ही धोया करिये । तातें विवेकपूर्वक छान्यापानी सूं धोवना उचित है । बैंचवेका कोई प्रकार धोवना उचित नाहीं । आगै रंगावनैका दोष कहिये है। नीलगर छीपा