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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
आदि रंगरेजके दोय चार व पांच दस वरस पर्यंत रंगके पानीका भांडा रहै है। पीछे वा विष कपराके समूह डुबोय मसलिमसलि रंग है। सो मसल वाकर सारा कुंडका जीव संगराम सल्या जाय है। ता पीछे दरियावमें जाय धोवै है। ऐसे ही पांच सातवार रंगना धोवना करै सो वा धोवा विषै वैसे ही रंगका पानी जहां पर्यंत दरियावमें फैले तहां पर्यंतका जीव बार बार हन्या जाया तातै ऐसा रंगानैका महा पाप जान सत पुरुषनकों रंगाबना त्याज्य है। आगेसे तखानाका. दोष कहिये है। एक बार मध्यान्ह समय चौंड़े ठौर विषै निहार करिये है । सो ततकाल ही सन्मूर्छन मनुष्य और असंख्यात. त्रस जीव सूक्ष्म अवगाहनाके धारक उतपन्नि हौय हैं पीछे दोय चार पहरके आतरै नजर आवै है । ऐसा लटादिकाका समूह जेता बह मल हो य तेता जीवाकी रास उत्पन्न होता देखिये है । सो जहां सांसती गूढ सरदी रहै है । अरु ऊपरा ऊपरी दसबीस पुरुष स्त्री मल मूत्र छैप वी सीला ताता पानी कुंडेसों ऐसा अशुद्ध स्थान विषै जीवाकी उत्पन्नकी कहा पूंछनी । अरु हिंसा दोषकी कहा पूंछनी, तातें ऐसा पाप महत् जान स्वपनै मात्र भी सेतखाना जाना योग्य नाहीं । आगे निगोद आदि पंच थावरके. जीवका प्रमाण दिखाईये है । एक खानकी माटीकी डली विर्षे असंख्यात प्रथ्वी कायके जीव पाईये है । सो निजाराका दाना, दानाका प्रमाण देह धरै तौ जम्बूदीपमें मावै नाहीं क संख्यात. असंख्यात दीप समुद्रामें मावै नाहीं। वा तीन लोक वा असंख्यात. लोकमें मावै नाहीं । ऐ ताही एक पानीकी बूंदमें वा अग्निके तिनगामें तुच्छ पवनमें व प्रतियेक वनस्पती काइके अग्र भाग मात्र.