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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।।
हुवा। सो बनारमांसू नवा जूता मोलले वामें घृत घाल वाकी रसोई विष जाय धस्यो तब वह रसोई छोड़ उठवा लागा तब यानै कही रसोई क्यों छोड़ौ हौ । थै पूर्व या कही थी म्हाकै तो चर्मके घृतका अटकाव नाहीं तातै बजारका महाजनोंके तो काचा चमके बासनमें घृत था। मैं थाकै अटकाव न जान पाका खालका जूता विष घृत ल्याया अरु थाने सौप्या तौ म्हानै काहेका दोष मैं या न जानी थी के पूर्वोवाली क्रिया है । पूरव्या मोकला अनछाना पानीसों तो साफ है । अरु सीसा साढस्य सोई उज्जल रसोईका बासन राखे । अरु बड़ा बड़ा चौका देई कोई ब्राह्मन आदि उत्तम पुरुषाका स्पर्श होई तो रसोई उतर जाय । पाछ कांसामें मांस लै रानी होय होय खाय । तातै त्योंही चामका घृत महा अभक्ष्य जानना । ऐसा सुनते प्रमाण चामका घृत तैल, हींग, जल आदि वस्तुका त्याग वे पुरुष कीया। ऐसे और भव्य जीव याकौं त्याग करौ । अब रसोई करनकी विधि कहिये है । जहां जीवकी उत्पत्ति न होई ऐसा स्थानक विषै खाड़ा खोवरा रहित चूनाकी वा माटीकी साफ जायगानै तौ जीव जंतु देख ऊपर चन्दोवा बाधि गारिका वा लोहका चूला धरिये। चूनाकी जायगा तो जीव जंतु देख कोमल बुहारीसों बुहार दे फिर तुक्षपानी करि जायगा आला बस्त्रसेती पोंछ नाखै वा धोय नाखै और गारकी जायगानै तुक्ष शुद्ध माटीसेती दयापूर्वक लिपाईये है । ता विषै उजला कपड़ा पहर तुक्ष पानीसूं हाथ पांव धोईये । सर्व वासनोंकू मांज रसोई विषै धरिये । पूर्वे कह्या ऐसा आटा, सीधा, दाल, चांवल, बलीता सोधि रसोई विषै लै बैठिये। रसोई विषै लागै जेता पानीकी मर्यादा दोय घड़ी हीकी है । तातै