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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भी दोय चार वार गुपति वाके पीछे जाय कुवा पर्यंत ठीक पाढ़िये जे पूर्वै कह्या । ता माफिक जीवानी सुद्ध उरासना ऐसे ही कुंवामें उरास है ताको विशेष पढ़ाई दीजिये टका दो टकाकी गम्य खाइये, पापका भय दिखाईये हैं। या भांति जीवानी पहुचावै तिनकुं छान्या पानी पिया कहिये । अरु पूर्ववत् जीवानी न पहुंचे ताकों अनछान्या पानी पिया कहिये । वा शूद्र साढस्य कहिये । जिनधर्म विषै ही तो दया ही का पालना धर्म है दया बिना धर्म नाम पावै नाहीं । जाके घट दया है तेई सत्पुरुष भवसागर तिरै हैं। ऐसे पानीकी शुद्धता स्वरूप जानना । बहुरि मर्यादा उपरांत आटा विषै कुंथवा सुलसुली आदि अनेक त्रस जीवांकी रास वा सरदी विषै भी निगोदरास सास्वते त्रप्सरास उपजै है । ज्यों ज्यों मर्यादा उलंघ आटा रहै त्यों त्यों अधिक बड़ी बड़ी अवगाहनाका धारक आटा विष कनक सारखा त्रस जीव उपनै है । सो प्रत्यक्ष ही आंख्या देखिये है तातें मर्यादा उलंध्या आटा अरु बाजारका तुरत पिसाया भी अवश्य तजना, जेता आटाका कनकाते ता ही त्रस जीवं जानना । तातें धर्मात्मा पुरुष ऐसा देखिके आटाका भक्षन कैसे करें । बहुरि चामका संयोग करि धृत विषै अंतर मुहूर्तसू लगाय जहां पर्यंत चामके सीधड़ामें घृत रहै तहां पर्यंत अधिक अधिक संख्याता त्रस जीव उपजै है । अरु चर्मका अस्पर्स करि महा निंद्य अभक्ष होय है । ताका उदाहरण कहिये है। काढू एक सरावगी रसोई करवाके समै कोई सरधानी पुरुष हाथ पैसा टकाका घृत बाजारसों मंगाया तब वह सीघ वाका घृत छुडायवाके अर्थ एक अकल उपजावता