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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
६३ होय है । सो जाकै कुल कर्म विषै ही रात्र भोजनका त्याग चल्या आया है ताकै तौ रात्रि भोजनका त्याग सुगम है। परन्तु अन्यमती होय अरु श्रावक व्रत धारै ताकुं कठिन है। तीसू सर्व प्रकार छठी प्रतिमा विष ही याका त्याग संभवै है। अथवा अपनै खावा का त्याग तौ पूर्व ही कियौ थौ इहां औराकुं भोजन करावनै आदिका त्याग किया । आगै ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। यहां घरकी स्त्रीका भी त्याग किया नव वाड सहित ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया । आगै आरम्भ त्याग प्रतिमा कहै है । इहां व्यौपार रसोई आदि आरम्भ करनैका त्याग किया पैलाके घरि वा अपनै घर न्यौता वा बुलाया जीमै है। आगै परिग्रह त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । इहां जो वाकै लक्ष अपनै परवानकै धोवती दुपटा पछेड़ी इत्यादि राखै है । अवशेष सर्व परिग्रहका त्याग करै । आगै अनुमति त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। इहां सावध कार्यका उपदेश देना तज्या है । सावध कीया कार्यकी अनुमोदना भी नाहीं करै है । आगै उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । यहां बुलाया नाहीं जीमै है । उदंड ही उत्तर है। एक क्षुल्लक ऐलक, क्षुक तौ कमंडल की पीछी आधा पछै बडा लंगौट राखै है । स्पर्श शूद्र लोहका पात्र राख है। ऊंच कुली पीतल आदि धातको राख है । अरु पंचघरासू भोजन लेय अंतके घर पानी लै वहां ही बैठ लोहके पात्र तामै भोजन करै है। कोई ऊंच कुली एक हीके घर भोजन करै है। अरु एकान्तमें भी करै है। ऐलक पक्षे बड़ा विना एक कमंडल पीछी लंगोट राखै है। अन्य नाही राखै है । अरु कर पात्र आहार कर है । अरि लौच करै है।