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ज्ञानानन्द श्रावकाचार।
हैं । अर दीनपनाका बचनं उच्चारै हैं । दुख सहनै कू असमर्थ हैं ताके दुख करि विलखा गया है मुख जाका । अर शरीर करि छीन है बल करि रहित है । सो ऐसा दुखी प्रानिन कुं देख दयालु पुरुष हैं ते भयभीत होय हैं । अरु वाकैसा दुख आपकै होय हैं। अर घबराइ गया है चित्त जाका ऐसा होतै वह दयालु पुरुष निहि तिहि प्रकार अपनी शक्ति के अनुसार वाके दुखकों निवृत्त करै है। अरु प्रानी जीवकू मारता होई बाधा करता होई ताकौ जिहि तिहि उपाय करि छुडावै है । दुखी जीवका अविलोकन करि निरदई हुग आगै नाहीं चल्या जाइ है । अरु वज्र समान है हृदय जाका ऐसा निर्दई पुरुष दुखी प्रानीनकू भी विलोंक जाकै दया भाव नाहीं उपनै है । अरु या विचारे है ऐ पापी पूर्व पाप किया ताका फलंकू भोगवै ही भोगवे । ऐसे नाहीं जानै मैं भी पूर्व ऐसा दुख पाया होईगा अरु फेर २ पाऊंगा । तातै आचार्य कहै हैं धिंकार होउ ऐसे निरदई परनामकौ । जिनधर्मका फल एक दया ही है। जाके घट दया नाही ते काहेका जैनी । जैनी विना दया नाहीं यह नियम है। . आगै दान देनेका स्वरूप कहिये है। रोगी पुरुषन को
औषधि दान दीजिये सो नाना प्रकारकी औषधि कराइ कराइ राखनै पाछै कोई रोगी आइ मांगै ताकू दीजिये । अथवा वैद्य चाकर राखवा का इलाज कराइये ताका फल कर देवादिकका निरोग शरीर पाइये है आयु पर्यन्त ताकौ रोगकी उत्पत्ति नाहीं अथवा मनुष्यका शरीर पावै तौ ऐसा पावै--अपनै शरीरमै तौ रोग कोई प्रकार उपनै नाहीं अरु अपने शरीरका स्पर्श करि वा नहानेका