________________
४८
ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 'अरु कदाच दान करै तौ कुपात्रनै पोखै है अरु पुन्य चाहै है । तौ वे पुरुष कौनकी नाई, जैसे कोई पुरुष सर्प नै दुग्ध प्याय वाका मुखसो अमृत लीया चाहै है । जल विलोय घतको काड़ा चाहै है, पत्थरकी नाव बैठ स्वयम् रमन समुद्र तिरचा चाहै है । वा वज्ञान विष कमल को बीज बोय वाके कमलनके फूलकी आशा करै है। वा कल्पवृक्ष क ट धतूरा बोथै है वा अमृतकुं तज हलाहल विषका प्याला पीके अमर हुवा चाहै है । तौ काई वा पुरुषका मन बांक्षित क रन सिद्ध हो सी। कार्य सिद्ध तौ कार्य कै लगै होसी । अरु झूठा ही गरज करि मान्या तौ गरज कोई सरी । कांच का खंडनै चिन्ता मन रत्न जानै घना अनुराग सू पल्लै वाध्य राख्या तौ काई वह चिन्तामणि रत्न हुवा। जैसे बालक गारि पाखानके आकारकू हाथी घोड़ा मान संतुष्ट होय है त्यों ही कुपात्रका दान जाननां घना कहा कहिये । जिनवानी विषै तौ ऐसा उपदेश है रे भाई धन धान्यादिक सामग्री अनिष्ट ही लामै है तो आंधेरे कूवामैं नाख यो तो केवल द्रव्य जाई लो। और अपराध क्यों नाहीं होयला अरु कुपात्र को दान दिये धन भी जाइ । अरु परलोक विष नरकादिका भव भव विषै दुख सहनै पड़ेगा तीसूं प्रान जावो तो जावो पन कुपात्रने दान देवा उचित नाही । सो ए बात न्याइ ही है। पात्र तो आहारादिक लै मोक्ष साधन करै है अरु कुपात्र आहारादिक लेइ अनंत सागरके बधावनैका कार्य करै है । सो कार्यके अनुसार कारनके कर्ता दातार ताकौ फल लागै है । सो वे कुपात्राने दान दिया मानौ आपाने मोक्षका दान दिया । अरु वे कुपात्रनै दान