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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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धन आमिष खाय है । अरु विषs कषाय रूपी अस्थी है । ताविषै ए जलें हैं। तातै मसान मुरदाकी भलीभांति उपमा संभवे' है ता ऐसी सर्व प्रकार निंदित अवस्था जान क्रपनता भनि पर-: द्रव्यका ममत्व न करना । संसार ममत्व हीका बीज है। ऐसी हेय उपादेय बुद्धि विचार शीघ्र दान करना । अरु परलोकका फल लैना नाहीं तौ यह सर्व सामग्री कालस्वरूप दावाग्नि विषै भस्म होयगी । पाछै तुम बहुत पछतावोगे सो कैसा है वो पछतावो जैसे कोई आइ समुद्र के तीर बैठ काग उड़ावने अर्थि चिंतामणि रत्न समुद्र विषै फेंक पछतावे है । पाछे रत्नकं झूर मेरे है । परन्तु स्वप्न मात्र भी चिंतामन रत्न पावै नाहीं ऐसा जानना । घनी कहा कहिये उदार पुरुष ही सराहवा योग्य है अरु वे पुरुष देव समान है ताकी कीर्ति देव गावै है । इति अतिथिसंविभागव्रतका स्वरूप सम्पूर्ण |
बारह व्रत सम्पूर्ण - ऐसा बारा व्रतका स्वरूप जानना । आगे श्रावकके बारह व्रत तथा सम्यक्त्व अंत समाधि मरनके सत्तर अतीचार ताका व्योरा स्वरूप कहिये है । प्रथम सम्यक्त्वके अती चार ५ ता विषै 'शंका' कहिये जिन वचन विषै सन्देह १ कांक्षा कहिये भोगविलासकी इच्छा २ विचिकित्सा कहिये ग्लानि ३ अन्य दृष्टीकी परोक्ष प्रशंसा ४ अन्य दृष्टि संस्तव कहिये मिथ्यादृष्टिकी समीप जाय स्तुति करना ५ | ऐसे हिंसा अनुव्रतके अतीचार पांच । ता विषै 'बंध' कहिये बांधना १ बध कहिये मारना २ छेद कहिये छेदना ३ अतिभारारोपन कहिये बहुत बोझ लादना ४ अन्न पान निरोध कहिये खाना पानी
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