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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । विषै भी आकुलता पावजै है। ऐसा एकेन्द्रिय परजाई है सो नरकके दुखसे भी विशेप दुख्य जाननां । सो वह लोभी पुरुष ऐसी नरक निगोद परजाई विषै अनंतकाल पर्यत भ्रमन करै है। वासौ वे इन्द्री आदि परजाई पावना महा दुर्लभ होई है । तातै लोभ परनतिकू अवश्य तनना जोग्य है । जे जीव नरक तिर्यच परजाइनै छोड़ि मनुष्य भव विष प्राप्त होय है । अरु नरक तियंच गत हू को पाछै जानै जोग्य है ताका तौ यह स्वभाव होय है ताकौ द्रव्य बहुत प्रिय लागै है अरु धनके वास्ते निज प्रानका त्याग करै पन द्रव्यका ममत्व छोड़े नहींतौं वह रंक वापरा गरीब कृपन हीनबुद्धि महामोही परमारथके अर्थ दान कैसे करै वाके. बृत रूपेका रुपैआ कैसे दिया जाई । बहुरि कैसा है वे पुरष मच्छके समान है स्वभाव व परनति जाकी । बहुरि दातार पुरुष है सो देवगति माहींसू तौ आऐ हैं अरु देवगति वा मोक्षगतिनै जानै जोग्य हैं । सो ए न्याय ही है । तिरयंच गतिके आहे. जीवके उदार चित्त कैसे होइ ज्यां वापरा असंख्यात अनंत काल पर्यंत क्यों भी भोग सामग्री देखी नाही । अरु आगै मिलनैकी आस नाही तो वाकै तृष्णारूपी अग्नि अरु किंचित् विषय सुखरूप जल करि कैसे बुझे । अरु असंख्यात वर्ष पर्यंत अहमिन्द्र आदि देवोपुनीत आनंद सुखके भोगी ऐसा जीव मनुष्य पर्यायके हाड़ मांस चामके पिंड मल मूत्र करि पूरित ऐसा शरीर ताके पोषनै विषै आशक्त कैसै होइ । अरु कंकर पत्थरादि द्रव्य विषै अनुरागी कैसे होइ । अरु भेद विज्ञान करि खपर विचार भया है जानै आपको परद्रव्यमूं भिन्न सास्वता अविनाशी