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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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अनुसार दश प्रकारके सचित अचित बाह्य परिग्रह ताको प्रमान न करे ऐसा नहीं के पुन्य तौ थोड़ा अर प्रमान बहुत राखें ताको परिग्रह परिमान व्रत कहिये सौ यो नाहीं है या विषै तौ अपन लोभ तीव्र होई है इहां लोभ हीका त्याग करना है ऐसे जानना अबै दश प्रकारके परिग्रहका स्वरूप कहिये है । धरती, जान कहिये पालकी आदि, द्रव्य कहिये धन, धान्य कहिये नान, हवेली, हलवाई, वरतन, सिज्यासन, चौपद, 'दुपद, ऐसे दश प्रकारके परिग्रह त्यागका प्रमान राख अवशेष त्याग करना ताकौ परिग्रह त्याग व्रत कहिये है। ऐसे पांच अणुव्रतका स्वरूप जानना । आगे दिग्वतका स्वरूप कहिये है । सो दिग नाम दिशाका है । सो दशू दिशा विर्षे सावद्य जोग अर्थि गमन कर वाका परनाम राख जौ वौ जीव मर्यादा कर लेई उपरांत क्षेत्रसू वस्तु मंगावै नाहीं वा भैजै नाहीं चिट्ठीपत्री भेजे नाहीं । अरु वहाकी पत्री चिट्ठी आई वाचै नाहीं ऐसे जानना । आगे देशव्रत कहिये है । देश नाम एकौदेशका है दिन प्रत दिशाव्रत दिशा प्रमान कर लै आज मोनै दोय कोश वा चार कोश वा वीस कोश मौकला है। अबशेष क्षेत्र विषै गमन न करनै आदि कार्यका त्याग है ता विष भी रातका जुदा प्रमाण है । दिनका जुदा प्रमाण करै रात विषै तुच्छ गमन करना है दिन विर्षे अरु देश व्रत विषै विशेष गमन करना। तातै ति माफिक गमन करै ता आगै कौन करता । भावार्थ । दिगविरत विषै अरु देश विरत विर्षे एता विशेष है सो दिगविरत विषै तौ दिशाका जावत जीवन प्रमान राख त्याग करै । अर देशविरत