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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
विर्षे मर्यादतीमैं मर्यादअल्प राख घटाय घटाय त्याग करै । जैसे बरस दिनका, छह महीनाका, महीनाका, एक एक पक्षका, वा दिनका वा पहरका वा दोय घड़ीका ता पर्यंत क्षेत्रका प्रमाण सावध जोगके अर्थिकरि धर्मके अर्थ नाहीं करै । धर्मके अर्थ कोई प्रकारका त्याग है नाहीं। आगै अनर्थदंडत्यागवत कहिये है विना प्रयोजन पाप लगै अथवा प्रयोजन विषे महापाप लगै ताका नाम अनर्थदंड है । ताका पांच भेद है १ पापोदेश २ अपध्यान ३ हिंसादान ४ प्रमादचर्या ५ दुश्रुतिश्रवन एवं पांच याका विशेष कहिये है । अपध्यान कहिये जा बात करि अन्य जीवका बुरा होइ वा राग द्वेष उपने, कलह उपनै अरु विश्वास उपजै दुःख उपजै, मरया जाय, धन लूटा जाइ सो कलह उपनै ताका उपायका चितवन करै । मुवा मनुष्यकू ताके वाके दुष्टको सुनाय देना। परस्पर बैर आदि करावना रानादिकका भय वतावना अबगुन प्रकट करना । मरमछेद बचन कहना ताका ध्यान रहै इत्यादि अपध्यानका स्वरूप जानना । बहुरि हिंसा दान कहिये है । छुरी, कटारी, तरवार, बरछी इत्यादि हथियार मांगा देना। ईधन, अग्नि, दीपक मांग्या दैना, कुसी, कुदारी, फावड़ा, की मांग्या देना, गाड़ी बलध ऊंटको घोड़ाकौ मागा देना, सिंगारादिकको मांगा दैना और चूला, उखली, मूसल, घरटी (चक्की) मांगा दैना, काकसी बुहारीको मांग्या दैना इत्यादि हिंसानै कारनजे वस्तु सो धरमात्मा पुरुष पेलेका भला मनावा वास्तै मांग्या है नाही । ऐसे ही हिंसानै कारन जे वस्तु ताका व्यौपार भी करै नाही, और बैठा बैठा ही विना प्रयोजन खोद नाखे अर पानी ढोलै छै।