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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
देना बड़ लेना धरोहर राख मेलनी झोले मारना इत्यादि ऐसे सात व्यसनके अतीचार जानना । ऐ अतीचार छोडै सो दर्शनप्रतिमाका धारी श्रावक जाननां और आगे भी केतीक वात नीतपूर्वक प्रथम प्रतिमाके धारक पालै सो कहिये है । अनारम्भ विर्षे जीवका घात न करै । मावार्थ हवेली महल आदिका करावा विषै हिंसा होई छै सो तौ होई छ ही । परंतु विना आ. रम्भ जीवने मारे नांही अरु उत्कृष्ट आरम्भ न करै खोटा व्यापार जिहिमैं घनी हिंसा होई घनौ झूठ होई वा जगत विषै निंदहोई। हाड़ चाम आदि अथवा ता विषै घनी त्रप्णा वधै इत्यादि उत्कृष्टका स्वरूप जानना अरु निज स्त्री जिहि तिही प्रकार कर धर्म विर्षे लगावै । स्त्रीकी धर्मबुद्धिसौ धर्मसाध नीका साधै है । अरु अपना धर्मका अनुराग होत सूचै है । अरु धर्माचार रहित लोकाचार उलंघे नाहीं । जा विषै लोक निंदा करै ऐसा कार्य कौन करै परंतु जा विर्षे अपना धर्म जाई है अरु लोक भला कहै है सो ऐसा नाहीं । कै धर्म छोड़ि लोकका कहा कार्य करै ताते अपनै धर्मको राख लोकाचार उलंघे नाही अरु स्त्रीनै पुरुषकी आज्ञा माफिक करवौ उचित है पतिवृता स्त्रीकी यही रीत है। और यह धर्मात्मा पुरुष है सोषट् आवश्यक हमेशा करि भौजन करे सो कहिये है प्रभात ही तौ देव अरहंतकी पूजा करे । पाछै निन्थ गुरुकी सेवा करै । शक्ति अनुसार तप अरु संयम करै शास्त्र श्रवन पढ़न करै पाछै पात्रके ताई वा दुःखित भुखित जीवांके ताईं चार प्रकार दान दे । सुपात्रानै तौ अहार औषधि शास्त्र वस्त्रका दान भक्तिपूर्वक देवे अरु दुखितताको आहार औषधि