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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । शास्त्र जिनवानीके अनुसार मेरी बुद्धि माफिक निरूपन करूंगा। सो कैसा है यह शास्त्र क्षीर समुद्रकी शोभानै धेरै है सो कैसा है समुद्र अत्यंत गम्भीर है अरु निर्मल जल करि पूर्ण भरया है अरु अनेक तरंगोंके समूह कर व्याप्त है। ताका जलकुं श्री तीर्थकर देव भी अंगीकार करें हैं । त्यों ही शास्त्रार्थ करि अत्यंत गम्भीर है । अरु सुरस करि पूर्ण भरचा है सोई जल है । अरु सर्व दोष रहित अत्यंत निर्मल है । अरु ज्ञान लहर करि व्याप्त है । ताको भी श्री तीर्थकर देव सेवें हैं । ऐसे शास्त्रको म्हारा नमस्कार होहु क्या वास्तै नमस्कार होय ज्ञानानंदके प्राप्तकै अर्थ, और प्रयोजन नाहीं। आगे करता अपना स्वरूपको प्रगट करै है वा अपना अभिप्राय जनावै है। सो कैसा हूं मै ज्ञानजोति कर प्रगट भया हूं तातें ज्ञान ही नै चाहूं हूं । ज्ञान छै सो म्हारा स्वरूप छै। सोई ज्ञान अनुभव न कर मेरे ज्ञान ही की प्राप्ति होय मैं तौ एक चैतन स्वरूप करि उत्पन्न भया । ऐसा जो शांतिक रस ताके पीवाको उद्यम किया है । ग्रंथ बनावा का अभिप्राय नाहीं, ग्रन्थ तौ बड़ा बड़ा पंडितोंने धना ही बनाया है मेरी बुद्धि कांई । पुन उस विषै बुद्धिकी मंदता करि अर्थ विशेष भाषता नहीं। अर्थ विशेष भास्या विना चित्त ऐकाग्र होता नहीं ॥ अरु चित्तकी एकाग्रता विना कषाय गलै नहीं । अरु कषाय गल्या विना आत्मीक रस उपजै नहीं ॥ आत्मीक रस उपज्या विना निराकुलित सुख ताकौ भोग कैसे होई ॥ तातै ग्रन्थका मिस कर चित्त एकाग्र करि वाका उद्यम किया । सो ए कार्य तौ बड़ा है। अरु हम जोग्य नहीं। ऐसा हम भी जाने है। परन्तु अर्थी