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ज्ञानानन्द श्रानकाचार।
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रंक पड़गाहि अहार द्यौ । भावै राजादिक पड़गाहि अहार द्यौ । सो आहार लेवा सौ तौ प्रयोजन है। रंक वा पुन्यवान पुरुषसूं प्रयोजन नाहीं। बहुर दूसरा अर्थ भ्रामटी कहिये जैसे भौरा उड़ता फूलकी बासनातै फूलनै विरोधै नाहीं। बहुर तीसरा अर्थ दाहश्रमन कहिये जैसे लाय लगी होई तानै जेती प्रकार बुझाई देना । त्यौंही मुन्याकै उदराग्न सोई भई लाय तीनै जीसौ तीसौ आहार मिलै तिहिंकरि बुझाव है। आछा बुरा स्वादका प्रयोजन नाहीं । बहुरि चौथा अक्ष प्रख्यन कहिये जैसे गाड़ी औंगन बिना चालै नाहीं । त्योंही मुन या जानै यह शरीर अहार दिया बिना 'सथिल होसी अरु म्हानै पासू मोक्षस्थान बिषे पहुंचा जै तौं यासू काम है । ताहैं याकू अहार है या कै आसरै संजम आदि गुन ऐकठा करि मोक्षस्थान विष पहुंचना बहुरि पांचमा गरत पूर्न कहिये जैसे कोई पुरुषकै सांप आदिका खाड़ा खाली होइ गया होई । तीनै वे पुरुष भाटा ईंट माटी काकरि पूर दिया चाहै । त्योंही मुन्याकै निराहारादिक करि खाड़ा कहिये उदर होई तौ जीती भांति अहार करि वाकू भरहे । ऐसा पांच प्रकारके अभिप्राय जान वीतरागी मुन शरीरकी थिरताके अर्थ अहार लै है। शरीरकी थिरतातूं परिनामकी थिरता होय है। अरु मुन्याकै परनाम सुधर वा कोई निरंतर उपाय रहै है । ती वातमैं रागद्वेष न उपनै तिहि क्रियारूप वः । और प्रयोजन नाहीं सो ऐसा शुद्धोपयोगी मुन्यानै गृहस्थ दातारका सात गुण संयुक्त नवधाभक्ति करि आहार दे है। प्रतिग्राहन कहिये प्रथम तौ मुन्यानै पड़गाहा है। पछि ऊचौ स्थान कहिये मुन्यानै ऊंचा स्थान विषै स्थांपै । पाछै पादोदक