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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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'अपराध म्हा मुन्याने मैं उपसर्ग कियौ । अरु जाका चरनाकी सेवा इन्द्रादिक देवाने भी दुर्लभ है । अरु मै एकने ऐसी करी ये परम उपगारी त्रैलोकाकरि पूज्य तानै मै कांई जाण उपसर्ग कियौ । हाय हाय, अब म्हारौ कांई होसी । अरु हूंसी गति जासूं । इत्यादि ऐसे वह पुरुष बहुत विलाप करतौ हुवौ अरु हाथ मसलतो हूवो अरु वारंवार मुन्याके चरणने नमस्कार करतो हवो जैसे कोई पुरुष दरआव विषै इतौ जिहानने अवलंबै । तैसे गुरांका चरनविषै अवलंबतौ हुवौ । अबै तो माने ऐहीका चरनकौ सरन छै । अम्य शरन नाहीं । जोई अपराध सूं बचौ तौ याहीके चरनाका सेवनि करि बचूं छू, और उपाई नाहीं । म्हारौ तौ दुख काटवाने ऐही समर्थ है । पाछै ई पुरुषकी धरम बुद्धि देख श्री गुरु फेर बोल्या हे पुत्र ! हे वच्छ ! तूं मति डरपै । थारै संसार निकट आयौ है । ती अवैथै धर्म्मामृत रसाईनने पी । अरु जरामरन दुःखका नाश कर । ऐसा अमृतमई वचन करि वे पुरुषनै पोषता हुवा जैसे ग्रीषम समय कर मुरझाई वनस्पतिकं मेष पोषे तैसें पोषता हुवा सोमहंत पुरुषांका यह स्वभाव ही है । अवगुणका ऊपर गुण ही कैटै सो ऐसे गुरु तारवा समर्थ क्यौं नाही होई है । बहुर ये शुद्धोपयोगी वीतराग संसार भोग सामग्री तासूं उदासीन शरीर सूं निष्प्रेह शुद्धोपयोगकी थिरता के अर्थ शरीरनै आहार दे है । सो कैसे दे हैं ताकूं कहिये है मुन्याकै आहार कै पांच अर्थ है । गोचरी कहिये जैसे गउनै रंक वा पुन्यवान कोई घासादि डोरै सो चरवा ही सौ प्रयोजन है । अरु कोई पुरुष सौ प्रयोजन नाहीं । त्यों ही मुन्याने भावै तौ