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पर्यासागर [३५]
। सब देवोंके प्रशा, अज्ञान, अदर्शन, अलाभ, अरति, नान्य, स्त्रो, निषधा, आक्रोश, याञ्चा, सस्कारपुरस्कार, H क्षुधा, तृषा, अध इन चौदह परिषहाँका उदय है, सो भी बहुत थोड़ा है। मनुष्य गतिके जीवोंके लिये गुणस्थानोंके अनुसार पहले लिख हो चुके हैं उसीके अनुसार समझ लेना चाहिये । इस प्रकार चारों गतियोंमें रहने
वाले जीवोंके पृथक्-पृथक् परिषहोंका उदय बतलाया है । सो हा मूलाचारप्रदीपकमें लिखा है। सर्वे तीवतराः संति सर्वोत्कृष्टाः परिषहाः ।नारकाणां गतौ घोरास्तथा तिर्यग्गतावपि ॥१७॥
प्रज्ञाज्ञानाभिधादर्शनालाभनाग्न्यसंज्ञकाः।अरतिस्त्रीनिषद्याख्याक्रोशयांचापरीषहाः॥१७६।। सत्कारादिपुरस्कारः क्षत्पिपासाबधोप्यमी। संति देवगतौ स्वल्पाश्चतुर्दशपरिपहाः॥१८॥
३२-चर्चा बत्तीसवीं ___मोक्षमार्ग अनाविकालसे है। संसारराशिके जीव अनाविकालसे संसारका नाश कर मोक्ष प्राप्त करते आ रहे हैं। वर्तमानमें भी विवहक्षेत्रसे जाते हैं तथा आगे भो अनन्तकाल तक आते रहेंगे परन्तु फिर भी सिद्धराशि बढ़ती नहीं और निगोवराशि घटती नहीं। सिद्धराशि और निगोदराशि वैसीकी वैसी ही अनन्तानंत। रूप बनी रहती है तो यह कहना किस प्रकार सिद्ध हो सकता है। क्योंकि जो पदार्थ जहाँसे निकलता है वहां ! घटमा चाहिये और जहाँ जाता है वहां बढ़ना चाहिये। इस हिसाबसे सिद्धराशि बढ़नी चाहिये और निमोदराशि घटनी चाहिये ?
समाधान-इस संसारमें निगोदराशि असंख्यात लोक प्रमाण है और एक एक निगोधराशि अनंता-है नंत निगोविया जीव निवास करते हैं। उन अनंतानंत जीवोंमेंसे यदि किसो जीवके स्थावर नाम कर्मका उपशमा
१. स्वर्गों में शोत, उष्ण, दंशमशककी बाधा होती ही नहीं वैक्रियिक शरीर होनेसे रोग, तुणस्पर्श, मल और शय्याको बाधा नहीं है a तथा विमान बनानेकी शक्ति होनेसे अथवा वेक्रियिक शरीर होनेसे ही चर्याको भी परिषह नहीं है । २. इस लोकाकाशमें स्कंधोंको संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है, प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवोंके शरीरोंको स्कंध कहते हैं। लोकाकाशके जिनने प्रदेश हैं उनको असंख्यातसे गुणा कर देने पर जो लब्धि आवे उतनो संख्या उन स्कंधोंकी है। तथा एक एक स्कंधर्म असंख्यात लोकप्रमाण अंडर हैं। एक एक अंडरमें असंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं। एक एक आवास असंख्यात लोक प्रमाण पुलवि हैं तथा एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर हैं और एक एक निगोद शरीरमें अनंतानंत जीव हैं।
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