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॥ श्रीहरिवन्दे || श्रीवृन्दावनविहारिणेनमः ।
॥ अष्टाङ्गहृदयम् ॥
* भाषाटीका समेतम् * सूत्रस्थानम् ॥
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* मङ्गलाचरण
नत्वा श्रीस्वर्गसद्वैद्यान् धन्वन्तरिमुखान्मुहुः गुरूदयप्रकाशाख्यान्महर्षीश्चकृपार्णवान्।। गीर्वाणभाषा सुकुमारबुद्धयोयेदृष्टुकामाऋषिभिर्विनिम्मितान् ग्रन्थानहं जातुकृते चतादृशाम् व्याख्यामितान्मर्त्यंगिरायथामति ॥ १ ॥
ग्रंथकारका मंगलाचरण |
रागादिरोगान सततानुषक्ता
नशेष कायप्रसृतानशेषान् । मौत्सुक्यमोहारतिदान् जघान
योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तुतस्मै ॥ १ ॥ अर्थ - मन और देह दोनोंको सन्ताप पहुंचानेवाले राग, द्वेष और लोभादि रोग, जो स्वाभाविकही निरन्तर प्राणियोंके संग लगेहुए हैं और जो संपूर्ण शरीरमें व्याप्त होगये हैं अथवा गजतुरगोरगादि सबशरीरमें विशेष रूपसे व्याप्त होगयेहैं और जो औत्सुक्य ( विषयोत्कंठा ), मोह ( कार्यकी अनभिज्ञता ), और अरति ( अनवस्थिति ) देनेवाले हैं ऐसे रागादि अ
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शेष अर्थात् समूल रोगोंको जिसने नाशकर दियाहै उस अपूर्व वैद्यको नमस्कार करताहूं १ प्रथमोऽध्यायः ।
अथात आयुष्कामीयमध्यायं व्याख्यास्या मैंः । इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ॥
अर्थ - तदनन्तर आत्रेयादिक महर्षि कहने लगे कि अब हम यहांसे आयुष्कामीय अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
( १ ) अथ शब्द आनन्तर्यार्थ बोधक है अर्थात् पहिले किसी अन्य प्रकरण पर व्याख्यान होरहाथा उसके अनन्तर आयुष्कामीय प्रसंग पर व्याख्यान प्रारंभहुआ ( २ ) अथ शब्द अधिकार बोधक है अर्थात् अब यहां से
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