Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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आचारांगसूत्रे अनतिक्रान्तरसम्, 'अपरिणयं' अपरिणतम् वर्णादिपरिवर्तनरहितम्, 'अविद्धत्थं' अविध्वस्तम् शस्त्रपरिणतिर हितजीवम् न शस्त्रपरिणत मित्यर्थः एतादृशं पानकजातम् 'अप्फासुर्य' अप्रासुकं सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेषणीयम् आधा कर्मादिदोषयुक्तं 'मण्णमाणे' मन्यमानः ज्ञात्वेत्यर्थः सचित्तत्वाद् आधाकर्मादिदोषदुष्टत्वाञ्च संयमात्मदातृ विराधना संभवेन ‘णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयान, साधुभिर्नग्रहीतव्यम् ॥ मू०७२॥
मूलम्-अह पुण एवं जाणिज्जा चिराधोयं, अंबिलं, वुक्कतं, परिणयं, विद्धत्थं, फासुयं एसणिज्जं जाय पडिगाहिज्जा ॥सू० ७३॥
छाया-अथ पुनरेवं जानीयात्-चिरधौतम् अम्लम् व्युत्क्रान्तम् परिणतम् विध्वस्तम् प्रासुकम् एपणीयम् यावत् प्रतिगृह्णीयात् ।। सू० ७३ ॥
टीका-ग्राह्यं पानकमधिकृत्याह-'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथ-यदि पुनः एवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'चिराधोयं' चिरधौतम् चिरकालिकधौवनोदकम् अंबिलं' अम्लम्पानी अम्ल खट्टा भी नहीं हुआ है अर्थात् ताजा होने से उस धावनोदक का स्वाद भी नहीं बदला है और 'अवोक्कंतं' उस पानी का रस भी नहीं बदला है 'अपरिणयं' उस पानी का वर्ण-रंग-कलर भी नहीं बदला है एवं 'अविद्धत्थं विध्वस्त भी नहीं हुआ है अर्थात् शस्त्र परिणत भी नहीं हआ है याने उस पानी का जीव शस्त्र परिणति से भी रहित है इसप्रकार के उस पानी जात को 'अप्फासुयं' सचित्त और 'अणेसणिज्जं मण्णमाणे' आधाकर्मादि दोषों से दूषित समझकर 'णो पडिगाहिज्जा' साधु और साध्वी नहीं ग्रहण करे क्योंकि उक्तरीति से वह पानी विलकुल ताजा होने से सचित्त और आधाकर्मादि दोष युक्त होने के कारण उस पानी को लेने से संयम आत्म दातृ विराधना दोष होगा ॥७२॥ __ अब साधु के ग्रहण करने योग्य पानी को लक्ष्यकर बतलाते हैं
टीकार्थ-'अह पुण एवं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त संयमशील साधु और 'अणपिल' ते पाणी माटु थयेस डाय अर्थात् ता पाथी त धापनाना पाई मसायो नहाय तथा 'अवोकतं' ते पाणीना २स ५९माया न जाय 'अपरिणय' ते पाणी २ ५५ मसायो न य तथा 'अयिद्धत्थं' विपत ५९] थये ना डाय अर्थात् ॥ પરિવૃતિ રહિત હોય અર્થાત્ તે પાણીના જીવ શા પરિણતિથી પણ રહિત હોય એવા
२न ते पाणी 'अप्फासुय' सचित्त भने 'अणेसणिज्ज' भनेपयीय 'मण्णमाणे' मानीन 'णो पडिगाहिज्जा' साधु अथवा सावाये ह ४२ नही. म-पत प्रथा તે પાણી બિલકુલ તાજ હોવાથી સચિત અને આધાકર્માદિ દોષ યુક્ત હોવાથી તે પાણી લેવાથી સંયમ-આમ દાતૃ વિરાધના દોષ લાગે છે. સૂ. ૭૨ છે હવે સાધુએ સ્વીકારવા ગ્ય પાણીને ઉદ્દેશીને કહેવાય છે.
-'अह पुण एवं जाणिज्जा' ते साधु मगर साम्या येथुनी माl
श्रीमायागसूत्र:४