Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः
९५१ येद् वा-अत्यन्तं प्रक्षालयेद्वा तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-प्रक्षालयन्तं गृहस्थम् आस्वादयेत्-मनसा समीहेत, नो वा तम्-प्रक्षालनं कुर्वन्तं गृहस्थम् नियमयेद् -अनुमोदयेत्, कायेन मनसा वचसा वा नानुमोदनं कुर्यादित्यर्थः ‘से सिया परो कायं' तस्य भावभिक्षुकस्य स्यात् कदाचित् परो-गृहस्थः यदि कार्य शरीरम् 'अन्नयरेण विलेवणजाएण' अन्यतरेण-एकतरेण येन केनापि विलेपनजातेन-लेपनद्रव्येण ( मरहम ) एकवार या अनेकवार प्रक्षालन करे तो उस को अर्थात् गृहस्थ श्रावक के द्वारा शरीर की शीलोदकादि से प्रक्षालन क्रिया को जैन साधु 'नो तं सायए' आस्वा. दन अर्थात् मन से अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे वचन तथा काय से भो उस प्रक्षालन का अनुमोदन या समर्थन नहीं करे याने तन मन वचन से उस के लिये प्रेरणा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस प्रकार का गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जानेवाले अत्यन्त शीतोदकादि से काय का प्रक्षालन परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्धन का कारण होता है इसलिये कर्मबन्धनों से अत्यन्त छुटकारा पाने के लिये प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले जैन साधु इस प्रकार के गृहस्थ द्वारा शरीर प्रक्षालन का समर्थन या अनुमोदन नहीं करें।
फिर भी प्रकारान्तर से भी साधु को यदि गृहस्थ श्रावक लेपन द्रव्य (मर हम) से शरीर में लेपन करे तो उस लेपनादि को भी परक्रिया विशेष होने से निषेध करते हैं- से सिया परो कायं' उस पूर्वोक्त जैन साधु के काय अर्थात् शरीर को यदि पर अर्थात गृहपति गृहस्थ श्रावक श्रद्धा भक्ति दया दाक्षिण्य से 'अन्नयरेण वाविलेवणजाएण' अन्यतर किसी भी एक विलेपन जात (मरहम) से 'आलिंपिज्ज वा' अलिंपन करे याने एकबार लेपन करे या 'विलिंपिज्ज वा' विले કરે અર્થાત્ સ્નાન કરાવે તે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા શરીરના શીતદક દિથી પ્રક્ષાલન ક્રિયાનું साधुये 'नो तं सायए' भनथी मिसाषा ४२वी नही. तथा 'नो तं नियमे' पयन मन કાયથી પણ એ પ્રક્ષાલનનું અનુમોદન કરવું નહીં તેમ સમર્થન પણ કરવું નહીં. એટલે કે તન મન અને વચનથી તેમ કરવા પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમ કે–આ રીતે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા ઠંડા પાણી વિગેરેથી શરીરનું પ્રક્ષાલન પરક્રિયા વિશેષ હોવાથી કર્મબંધનું કારણ થાય છે. કર્મબંધથી છૂટવા માટે દીક્ષા ધારણ કરવાવાળા સાધુએ આ રીતે ગૃહસ્થ દ્વારા શરીરના પ્રક્ષાલનનું સમર્થન કે અનુમોદન કરવું નહીં.
સાધુના શરીરનું ગૃહસ્થ લેપન દ્રવ્યથી શરીરમાં લેપન કરવું તે પણ પરક્રિયા पाथी सूत्र॥२ तेना निषेनु ४थन ४२ छे. 'से सिया परो काय अन्नयरेण विलेवण जाएण' से पूति साधु शरीरने से ५२ अर्थात् १७२५ श्राप भापतिथी पिय
श्रीमाया सूत्र:४