Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 1183
________________ आचारांगसूत्रे पनम् अकुर्वन् सर्वसहः-पृथिवीवत् सर्वप्रकारकपरीषहोपसर्गान् सहमानः महामुनिः सम्यक्तया त्रिभुवनस्व भावज्ञाता भावसाधुः 'तहाहि से सुस्समणे समाहिए' तथाहि-तथाभूतत्वादेव असौ साधुः सुश्रमणः-श्रेष्ठश्रमणः इति समाख्यातः-कथितः, एतावता परीषहोपसर्गान सहमानो महामुनिः गीतार्थमुनिभिः सह संसन् दुःखं सर्वप्राणिनां प्रतिकूलवेदनीयं जानन् दुःखिनः सस्थावर जीवान् अपरितापयन् पृथिवीवत् सर्वदुःखसहनकर्ता लोकत्रयवर्तिपदार्थवेतृत्वात् श्रेष्ठश्रमणत्वेन प्रसिद्धो भवतीति भावः ॥४॥ अपि च मूलम्-विऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं विणीय तण्हस्स मुणिस्स झायओ। ___ समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेथसा तबो य पन्ना य जसो य वड्डइ ॥५॥ छाया- विद्वान् नतः धर्मपदमनुतरम् विनीततृष्णस्य मुनेः ध्यायतः।। समाहितस्थाग्निशिखेर ते नसा तपश्च प्रज्ञा च यशश्च वर्द्धते ॥५॥ टीका-विउ नए धम्मपयं अणुत्तरं' विद्वान्-समयकालज्ञः, नतः-विनयसम्पन्नः, अनु. याने अपरितापित करता हुआ अर्थात् परितापन नहीं करता हुआ और पृथिवी के समान सर्व प्रकारके परीषहोपसर्गों को सहन करता हुआ महामुनि निर्ग्रन्थ जैन साधु अर्थात् सम्यग् रूप से त्रिभुवन के स्वभाव को जानने वाला भावसाधु 'तहाहि से सुस्समणे समाहिए' इस प्रकार के होने से ही वह निर्ग्रन्थ जैन साधु सुश्रमण अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ श्रमण कहलाता है एतावता परीषह उपसर्गों को सहता हुआ महा मुनि जैन साधु गीतार्थ मुनियों के साथ निवास करता हुआ दुःख सभी प्राणियों के प्रतिकूल वेदनीय होता है ऐसा जानता हुआ अत्यन्त दुःखी सभी त्रस स्थावर जीवों को नहीं परितापित करते हुए पृथिवी के समान सर्व दुःख का सहन करनेवाला वह भावसाधु तीनों लोकों के अन्दर रहनेवाले सभी पदार्थों को जानने के कारण अत्यन्त श्रेष्ट श्रमण रूप से प्रसिद्ध होता है अर्थात् वह भावसाधु अत्यन्त श्रेष्ट साधु समझा जाता है इस प्रकार के निर्मन्य श्रेष्ठ जैन साधु के लिये और भी बतलाते हैं-'विऊ नए धम्मपयं अणुसरं' मुणी तहाहि से सुस्समणे समाहिए' ॥४॥ दूषित अर्थात् अपरितापित ३२त21 पृथ्वी સરખા સર્વ પ્રકારના પરીષહપસર્ગોને સહન કરીને નિર્ગથમુનિ અર્થાત સમ્યફ રૂપ ત્રિભુવનના સ્વભાવને જાણવાવાળા સંયમી સાધુ આ પ્રકારના હોવાથી જ એ નિગ્રન્થ મુનિ સુશ્રમણ અર્થાત્ અત્યંત શ્રેષ્ઠ શ્રમણ કહેવાય છે. એટલે કે-પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરીને મહામુનિ ગીતા મુનિની સાથે નિવાસ કરતા તથા દુઃખ બધા પ્રાણિયોને પ્રતિકૂળ હોય છે. તેમ સમજીને અત્યંત દુઃખી બધા જ ત્રસ સ્થાવર જીવેને પરિતાપ કર્યા વિના પૃથીવીની જેમ બધા દુઃખ સહન કરનાર તે આત્માથી સાધુ ત્રણે લેકેની અંદર રહેલા બધા પદાર્થોને જાણવા માટે અત્યંત શ્રેષ્ઠ શ્રમણ પણથી પ્રસિદ્ધ થાય છે. અર્થાત્ તે નિગ્રંથ સાધુ અત્યંત ઉત્તમ સાધુ કહેવાય છે. આ प्रमाणे निधन्य श्रेष्ठ साधु भाटे विशेष अथन 3रे छे-'विउ नए धम्मपयं अणुत्तरं' ते ५ श्री.आयासूत्र:४

Loading...

Page Navigation
1 ... 1181 1182 1183 1184 1185 1186 1187 1188 1189 1190 1191 1192 1193 1194 1195 1196 1197 1198 1199